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प्राक्कथन
हिन्दीभाषाटीकासहित
(४३)
छिलका उतर जाने पर उस का फिर *संयोग नहीं होता। इसी प्रकार आम्रवृक्ष पर से टूटा हुआ आम्र फल फिर उस से नहीं जोड़ा जा सकता। तात्पर्य यह है कि चावल और छिलके के संयोग का नाश तो प्रत्यक्ष सिद्ध है परन्तु इन का फिर से संयुक्त होना देखा नहीं जाता। पृथक् हुआ छिलका और चावल दोनों फिर से पूर्व की भाँति मिल जावें, ऐसा नहीं हो सकता । इसीलिये आत्मा से विभक्तपृथक् हुए कर्मों का आत्मा के साथ फिर कभी सम्बन्ध नहीं हो सकता । इस के अतिरिक्त प्रात्मसम्बन्ध कर्मों का विनाश हो जाने के बाद उन को फिर से उज्जीवित करने वाला कोई निमित्तविशेष वहां पर नहीं होता । अतः आत्म कर्म सम्बन्ध-संयोग अनादि सान्त है और इन का घियोग सादिअनन्त है । दूसरे शब्दों में-उक्त सम्बन्ध के नाश का फिर नाश नहीं होता, यह कह सकते हैं
आत्मा कर्मपुद्गलों को किस प्रकार ग्रहण करता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जैसे उष्ण तैल की पूरी अथवा शरीर में तैल लगाकर कोई धूलि में लेटे तो धूलि उस के शरीर में चिपक जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व, कषाय, योग आदि के प्रभाव से जीवात्मा के प्रदेशों में जब परिस्पन्द होता है, हलचल होती है, तब जिस आकाश में आत्मा के प्रदेश होते हैं वहीं के अनन्त पुद्गलपरमाणु जीव के एक २ प्रदेश के साथ सम्बद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार जीव और कर्म का आपस में दूध और पानी,
आग और लोहे के समान सम्बन्ध होता है । तात्पर्य यह है कि दूध और पानी तथा आग और लोहे का जैसे एकीभाव हो जाता है उसी प्रकार जीव और कर्मपुद्गल का सम्बन्ध समझना चाहिये ।
सुखदुःख, सम्पत्तिविपत्ति, ऊंचनीच आदि जो अवस्थायें दृष्टिगोचर होती हैं, उन के होने में काल, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि अन्यान्य कारणों की भाँति कर्म भी एक कारण है । कर्मवादप्रधान जैनदर्शन अन्य दशनों की भाँन्ति ईश्वर को उक्त अवस्थाओं का कारण नहीं मानता । जैनदर्शन तथा वैदिकदर्शन में यही एक विशिष्ट भिन्नता है । तथा जैनदर्शन को वैदिकदर्शन से पृथक करने में यह भी एक मौलिक कारण है ।।
प्रश्न-सभी प्राणी अच्छे या बुरे कर्म करते हैं। कोई भी प्राणी बुरे कर्म का फल नहीं चाहता और कर्म स्वयं जड़ होने से किसी चेतन प्रेरणा के बिना फल देने में असमर्थ हैं, अतः कर्म फल भुगताने में ईश्वर नामक किसी शक्तिविशेष की कल्पना औचित्यपूर्ण ही है। अन्यथा कर्मफल असम्भव हो जाएगा ? अर्थात् कर्मजड़ होता हुआ फल देने में कैसे सफल हो सकता है ?
उत्तर-यह सत्य है कि कर्म जड़ हैं और यह भी सत्य है कि प्राणी स्वकृत कर्म का अनिष्ट फल नहीं चाहते, परन्तु यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि चेतन के संसर्ग से कमों में एक ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि जिस से वह अपने अच्छे और बुरे फल को नियत समय पर प्रकट कर देता
*जहा दड्ढाणं बीयाणं न जायंति पुण अंकुरा। कम्मबीयेसु दड्ढेसु न जायन्ति भवांकुरा ॥ (दशाश्रुतस्कंध दशा ५)
अर्थात जैसे दग्ध हुआ बीज अंकुर नहीं देता, उसी प्रकार कर्मरूप बीज के दग्ध हो जाने से मानव जन्म मरण रूप संसार को प्राप्त नहीं करता ।
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