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बोल ११ वां पृष्ठ २२९ से २३१ तक
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उत्तराध्ययन सूत्रके २६ वें अध्ययन में अपनी प्राण रक्षा के लिये साधुको महार अन्वेषण करने का विधान किया है। भगवती शतक १ उद्देशा ९ में साधुको पृथिवी काय आदिके जीवोंकी रक्षा करनेके लिये प्रासुक और एषणिक व्याहार लेना लिखा है । बोट १२ वां पृष्ठ २३१ से २३३ तक
स्थ वर जंगम जन्तुओं को दण्ड देकर असंयमके साथ जीने या चिर काल तक जीने की इच्छा साधुके लिये वर्जित की गई है। प्राणियोंकी रक्षा के साथ और यथा प्राप्त अयु तक जीनेकी इच्छा करना वर्जित नहीं है ।
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सुय० अ० १ गथा २४
बोल १३ वां पृष्ठ २३३ से २३६ तक
सुयगडाङ्ग श्रु० १ अध्याय १५ सुयगडांग श्रु० १ अ० ५ उ० १ गाथा ३ सुय-श्रुत० १ अध्याय १० गाथा ३ सुय० श्र० १ ० २ गाथा १६ में हिंसक के हाथ से मारे जाने वाले प्राणियोंकी प्राण रक्षा करनेका निषेध नहीं है ।
बोल १४ व पृष्ठ २३६ से २३७ तक
उत्तराध्ययन सूत्र ४ गाथा ७ में गुणका उपार्जनके निमित्त साधुको जीवित रहना कहा है। प्राणियों की प्राण रक्षाके लिये उपदेश देना गुणका उपार्जन करना है इसलिये जीवरक्षा के लिये उपदेश देनेमें पाप बनलाना अज्ञान है ।
बोल १५ पृष्ठ २३८ से २३८ तक
सुय० श्रु० १ अ० २ गाथा १ में संयम प्रधान जीवनको दुर्लभ कहा है। जंव रक्षा के लिये जीवन व्यतीत करना संयम जीवन है ।
बोल १६ वां पृष्ठ २५९ से २४० तक
नमिगज ऋषिसे इन्द्रने जीव रक्षा करनेमें पाप या पुण्यका होना नहीं पूछा था किन्तु सांसारिक पदार्थोंमें उनकी ममताके होने व न होने की परीक्षा की थी । नमिराज ऋषि प्रत्येक बुद्ध साधु थे स्थविर कल्पी नहीं उनका उदाहरण स्थविर कल्पियोंके लिये देना अज्ञान है ।
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बोल १७ व पृष्ट २४० से २४२ तक
दश वैकालिक सूत्र अ० ७ गाथा ५० में देवता मनुष्य और निर्यश्चोंमें परस्पर युद्ध होने पर एक की हार और दूसरेकी जीत कहना साधुके लिये वर्जित है परन्तु उपदेश देकर युद्ध शान्त कर देना या मरते जीवकी रक्षा करनेका निषेध नहीं है ।
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