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बोल तीसरा २०९ से २११ तक
दूसरेसे भय पाते हुए प्राणीको भयसे मुक्त करना भो अभय दान है केवल अपनी ओरसे भय न देना ही नहीं । अरिदमन राजाकी चौथो रानीने चोरको सुलीसे बचाया था और उसे टीकाकारने अमय दान कहा है ।
बोल चौथा पृष्ठ २११ से २१६ तक
आर्यक्षेत्र जीवोंका उपकार और अपने कर्मों का क्षपण करनेके लिये भगवान् महावीर स्वामी धर्मोपदेश करते थे । जीवोंकी प्राण रक्षा करना उनका प्रधान उपकार है । सुब० श्रु० ५ अ० ६ गाथा : १७-१८ भगवान् महावीर स्वामी त्रस और स्थावर के क्षेम करने वाले थे क्षेम नाम रक्षा, . और शान्तिका है । सुय० श्रु० २ अ० ६ गाथा ४ बोल ५ व २१६ से २१८ तक
साधु संत जीव की प्राण रक्षा उनसे असंयम सेवन करानेके लिये नहीं करते किन्तु उनका आर्तरौद्र ध्यान मिटाने और हिंसक को हिंसाके पापसे बचाने के लिये करते हैं ।
बोल छट्ठा पृ० २१८ से २२१ तक
भगवान नेमिनाथजी, पिंजड़े में मारनेके लिये रोके हुए प्राणियों को छुड़ा कर लौट गये थे ।
वो सातवां पृष्ठ २१८ से २२१ तक
हाथीने शशका 'द प्राणियों की प्राणरक्षा करके संसार परिमित किया था । बोल आठवां पृष्ठ २२३ से २२५ तक
सुयगडांग सूत्र की 'वज्झापाणा न वज्झेति" इत्यादि गाथामें वध दण्ड देने योग्य अपराधीको निरपराधी कहनेका निषेध है किसी प्राणीकी प्राण रक्षा के लिये मत मार कहनेका निषेध नहीं है ।
बोल नवां पृष्ठ २२५ से २२७ तक
आचारांग सूत्र श्रु० २ अध्याय १ उद्देशा १ में मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करने के भयसे साधुको गृहस्थ के निवास भूत मकानमें रहना वर्जित नहीं किया है किन्तु ऊंचा नीचा मन होनेकी भावनासे वर्जित किया है ।
बोल दसवां पृष्ठ २२७ से २२९ तक
आचाराङ्ग सूत्र श्रु० २ अ० २ उ० में अपने स्वार्थ के लिये गृहस्थ द्वारा अग्नि ने और न जलानेकी भावना करना साधुके लिये वर्जित की है कीड़ी आदि जीवों की रक्षा की भावना से उक्त कार्य्य वर्जित नहीं किया है
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