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[ २८ ] प्रमादी साधु भी कुपात्र ही ठहरेंगे। राजप्रश्नीय सूत्रमें साधुके समान श्रावकसे भी आर्य धर्म सम्बन्धी सुवाक्य सुननेसे दिव्य ऋद्धिकी प्राप्ति कही गई है।
बोल २८ वां १६८ से १६१ तक श्रावक अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रहसे देवता होते हैं प्रत्याख्यान और व्रत से नहीं।
बोल २९ वां १७१ से १७३ तक ...सुयगडांग सूत्रकी गाथाका नाम लेकर गृहस्थके दानको संसार भ्रमणका हेतु बताना मूर्खता है।
बोल ३० पृष्ठ १७३ से १७१ तक . . - साधु यदि उत्सर्ग मार्ग में गृहस्थको अन्नादि दान देवे तो निशीथ सूत्र उद्देशा १५ बोल ७८१७९ में प्रायश्चित्त होना कहा है परन्तु हीन दीन दुःखोको अनुकम्पा दान देने वाले गृहस्थको प्रायश्चित्त नहीं कहा है तथा उस गृहस्थके अनुकम्पा का अनुमोदन करने वाले साधुको भी प्रायश्चित्त नही कहा है। . .. अपवादमार्गमें अन्य यूथिक और गृहस्थको शामिलमें मिली हुई भिक्षाको बांट कर साधु भी देते हैं।
बोल ३१ वी १७९ से १८२ तक : अपनी निरक्य भिक्षा वृत्ते कायम रखनेके लिये तथा ज्ञान दर्शन और चारित्रमें शिथिलता न आने देने के लिये उत्सर्ग मार्गमें साधु गृहस्थको दान नहीं देते एकान्त पाप जान कर।
बोल ३२ वां पृष्ठ १८२ से १८३ तक साधुसे इतरको अनुकम्पा दान देनेके लिये जो अन्न बनाया जाता है उसे दस कारिक सूत्रमें पुण्यार्थ प्रकृत कहा है पापार्थ प्रकृत नहीं कहा और जिसके घरमें उक्त - अन्न बनाया जाता है उसे शिष्ट कहा है। .
बोल ३३ वां १८३ से १८४ तक भगवती शतक २ उद्देशा ५ में साधुकी तरह श्रावककी सेवा करनेका भी शास्त्र श्रवणसे लेकर मोक्ष तक फल मिलना कहा है।
... बोल ३४ पृष्ट १८५ से १८७ तक उत्तराध्ययन सूत्रके अट्ठाइसवें अध्ययनमें सहधर्मी भाईको मातपानी आदिके द्वारा उचित सत्कार करना समकितका आचार कहा है। व्यवहार सूत्रके दुसरे उद्देशेके भव्य में प्रवचन के द्वारा श्रावकका साधर्मी साधु औरश्रावक दोनों कहे गये हैं ।
४.तक .
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