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बोल १२ वां पृष्ठ १२० से १२४ तक . ग्राम धर्मादि लौकिक धर्म और प्रमस्थविरादि लौकिक स्थविर पाम आदिके चोरी जारी आदि बुराइयां दूर करते हैं इसलिये उन्हें एकान्त पापमें बताना मूर्खाका कार्य है।
__ बोल १३ वां पृष्ठ १२४ से १२७ तक ठाणाङ्ग ठाणा नौ में कहे हुए नवविध पुण्य केवल साधुको ही दान देनेसे नहीं किन्तु उनसे इतरको दान देनेसे भी होते हैं।
बोल चौदहवां १२७ से १३० तक भीषण जीके जन्मसे पहलेके बने टव्वा अर्थमें लिखा है कि "पात्रने विषे अन्नादिक दीजे तेहयकी तो कर नामादिक पुण्य प्रकृतिनो बन्ध तेहथकी अनेराने देवुते भनेरी पुण्य प्रकृतिनो वन्ध । तीर्थकर नामकी पुण्य प्रकृति ४२ पुण्य प्रकृतियोंके आदिमें नहीं अपितु अन्तमें है अत: तीर्थ करादि कहनेसे सभी पुण्य प्रकृतियोंका ग्रहण नहीं हो सकता।
बोल १५ पृष्ठ १३० से १३१ तक ठाणाङ्ग ठाणा नौके मूलपाठमें न कहे जाने पर भी जैसे साधुको परिहारी सुई कतरनी आदिके दानसे पुण्य ही होता है उसी तरह साधुसे इतरको धर्मानुकूल वस्तु देने से पुण्य ही होता है एकान्त पाप नहीं।
बोल १६ वां पृ० १३१ से १३३ तक साधुसे इतर सभी जीवको कुपात्र कायम करके उनको दान देनेसे मांस भक्षण व्यसन कुशीलादि सेवन की तरह एकान्त पाप कहना अज्ञान है। साधुसे इतर होने पर भी श्रावकको तीर्थमें गिना गया है और उसे गुण रत्नका पात्र कहा गया है। कुपात्र नहीं कहा।
बोल १७ वां पृष्ठ १३३ से १३५ तक ठाणाङ्ग ठाणा ४ की चौभंगीमें साधुसे इतरको दान देने वाला अक्षेत्र वर्षों नहीं कहा है अपितु जो प्रवचन प्रभावनाके लिये सबको दान देता है उसकी टीकाकारने प्रशंसा की है क्योंकि प्रवचन प्रभावनाके लिये दान देनेसे ज्ञाता सूत्रमें तीर्थकर गोत्र बांधना कहा है। -
बोल १८ वां १३६ से १३८ तक शकडाल पुत्र श्रावकने गोशालकको दान देनेसे धर्म तपका निषेध किया है पुण्य का निषेध नहीं किया है तथा निर्जरा के साथ ही पुण्य वन्ध होनेका कोई नियम भी नहीं है।
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