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बोल ३५ वां पृष्ठ १८७ से १८८ तक भगवती शतक १२ उद्दशा १ में अपने सहधी भाईको भोजन कराना पोषध धर्मकी पुष्टिमें माना है। ...
योल ३६ वां पृष्ठ १८८ से १९० तक एग्यारह प्रतिमाओंका विधान तीर्थंकरोंने किया है।
बोल ३७ वां पृष्ठ १९० से १९३ तक पयारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक, दश विध यति धर्मका अनुष्ठान करने वाला बड़ा हो पवित्रास्मा एवं सुपात्र होता है इसे कुपात्र कहने वाले अज्ञानी हैं।
. बोल -३८ वां पृष्ठ १९३ से १९४ तक मम्वड संन्यासी और वरुण नागत्तू याके पाठमें आये हुए कल्पका दृष्टान्त देकर एयारहवीं प्रतिमाधारीके कल्पको तीर्थ करकी आज्ञासे बाहर कहना अज्ञान है।
बोल ३९ वां पृष्ठ १९४ से १९७ तक सामायक और पोषाके समय श्रावक, पूंजनी आदि उपकरण जीवदयाके लिये रखते हैं अपने शरीर रक्षाके लिये नहीं अतः श्रावकके पूंजनी आदि उपकरणोंको एकान्त पापमें स्थापन करना मूरता है।
बोल ४० वां पृष्ठ १९७ से १९९ तक। अढाई द्वीपसे बाहर रहने वाले तियञ्च श्रावक कई ब्रोंमें श्रद्धा मात्र रखनेसे बारह व्रतधारी माने जाते हैं। मनुष्य श्रावककी तरह सभी व्रतोंका शरीरसे स्पर्श और पालन करनेसे नहीं।
बोल ४१ वां पृष्ठ १९९ से २०३ तक श्रावक देश संयम पालनार्थ जो मन, वचन, काय और उपकरणोंका व्यापार करता है वह सुप्रणिधान है दुष्प्रणिधान नहीं।
इति दानाधिकारः। अथ अनुकम्पाधिकारः।
बोल १ पृष्ट २०४ से २०७ तक मरते हुए आणीकी प्राणरक्षा और मारने वालेकी हिंसा छोड़ानेके लिये साधु धर्मोपदेश करता है केवल हिंसकको हिंसाके पापसे बचाने के लिये ही नहीं।
बोल दूसरा पृष्ठ २०७ से पृष्ठ २०९ तक सज प्रश्नीय सूत्रमें चित्त प्रधानने द्विपद, चतुष्पद, मृग पशु पक्षी और सरीसृपों की प्राणरक्षाके लिये केशी स्वामीसे राजा प्रदेशीको धर्मोपदेश देने की प्रार्थना की थी।
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