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अनन्त का प्रत्यक्ष असम्भव [२५ अवश्य है तब वह एक साथ प्रगट क्यों नहीं हो सकती ? और प्रगट हो सकती तो आत्मा अनन्तज्ञ क्यों नहीं ?
उचर-यहाँ शक्ति के स्वरूप के विषय में ही भ्रम है। ज्ञानमें अमुक अमुक पदार्थ के जानने की शक्ति जुदी जुदी नहीं होती किसी पदार्थ को जानना यह तो निमित्त की बात है। जैसे हममें एक मील तक देखने की शक्ति हो तो जो पदार्थ उसके भीतर आजाँयगे उन्हें हम देख सकेंगे । पर हम यहाँ बैटकर एक मील देख सकते हैं इसीप्रकार अमेरिका यूरोप अदि हरएक जगह बैठकर एक मील देख सकते हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि उन लाखों मीलोंमें आये हुए समस्त पदार्थों को देखने की योग्यता हमार भीतर आगई । योग्यता का किसी खास पदार्थ के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । घड़े को देखने की योग्यता अलग, कपड़े को देखने की योग्यता अलग ऐसी योग्यता नहीं होती। योग्यता इस प्रकार होती है कि इतनी दूर तक का देखा जा सकता है इतना सूक्ष्म देखा जा सकता है। अब उस मर्यादा के भीतर जो प्रदार्थ आजाँयगे वे उपयोग लगाने पर दिख पड़ेंगे। किसी में देखने की शक्ति अधिक होती है किसी में सुनने की, किसी में विचास्ने की, ये जो योग्यता के नानारूप है वे निमितभेद से हैं। जैसी द्रव्योन्द्रियाँ, जैसी रुचि, जामा शिक्षण और जैसे साधन मिल जाते हैं ज्ञान की योग्यता उनी रूप में काम करने लगती है। जैसे हमारे पास कुछ बिजली की शक्ति है और वह १०० यूनिट है अब उसका उपयोग हम प्रकाश में ले सकते हैं गति में ले सकते हैं थोड़ी थोड़ी बाँटकर दोनों में ले सके। यह नहीं हो सकता कि सौ यूनिट प्रकाश में ले लें। और १००