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अमोह
जो जीवात्माएँ निरंतर बाह्य पौद्गलिक सुख में ही ओत-प्रोत हैं, निमग्न हैं, उनके समक्ष स्वाभाविक सुख के अनुभव की बात हास्यास्पद बन जाती है । ऐसे समय आत्मिक सुख की अनुभवी आत्मा, पौद्गलिक सुख को 'वास्तविक सुख' के रूपमें उस का वर्णन करने में असमर्थ होता है । क्योंकि ज्ञानीपुरूष की दृष्टि में पौद्गलिक सुख, कर्मोदय से उत्पन्न रिद्धि-सिद्धि और सुख-संपदा मात्र दु:ख ही दुःख, अनंत पीडाओंका केन्द्रस्थान जो हैं ।
तब कुछ महत्वपूर्ण बातों का पता लगता है, जो जीवात्मा के लिए महत्वपूर्ण मार्गदर्शन हैं : * मोहनीय कर्म का क्षयोपशम किये बिना आत्मा के
स्वाभाविक सुख का अनुभव मिलना असंभव है। * ऐसे स्वाभाविक सुख का अनुभवी वैभाविक सुख में
भी दुःख का ही दर्शन करता है, उसे वह 'सुख' नहीं लगता। * बाह्य जगत के सुख में सरोबार जीव आत्मसुख की
बात समझने से इन्कार करे, तब भी उस पर गुस्सा
करने के बजाय मनमें करूणा भाव ही रखें । * आत्मसुख को अनुभवी जीवात्मा का संबंध बाह्य सुखों
में खोये जीव के साथ कदापि टिक नहीं सकता । यश्चिद्दर्पणविन्यस्त-समस्ताऽऽचारचारुधीः ।
क्व नाम स परद्रव्ये-ऽनुपयोगिनि मुह्यति ? ॥८॥३२॥ अर्थ : जो ज्ञानरुपी दर्पण में प्रतिबिंबित समस्त ज्ञानादि पांच आचार से
युक्त सुन्दर बुद्धिमान है-ऐसा योगी, भला, अनुपयोगी ऐसे परद्रव्य
में क्यों मोहमूढ़ बनेगा ? विवेचन: दर्पणमें अपने समस्त अवयवों की सुन्दरता को निहार मनुष्य अपने आपमें आनन्दित होकर झूम उठता है और उसे अधिक सुन्दर एवं आकर्षक बनाने के लिए सदा प्रवृत्तिमय रहता है । उसका सुख लटने, सुन्दरता में अधिकाधिक वृद्धि करने हेतु बाजार में जाता है, बाह्य जगत में बावरा बन प्राय: भटकता रहता है और समय समय मोहित हो उठता है।
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