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३१. तेजोलेश्या
'तेजोलेश्या' शब्द का उपयोग जैन आगम साहित्य में तीन अर्थों में किया गया है ।
१. जीव का परिणाम ।
२. तपोलब्धि से प्रकटित शक्ति ।
३. आन्तर आनन्द; आन्तर सुख ।
'ज्ञानसार' में ग्रन्थकार ने कहा है :
"तेजोलेश्याविवृद्धिर्या साधोः पर्यायवृद्धितः । भाषिता भगवत्यादौ सेत्थंभूतस्य युज्यते ॥"
[ ज्ञानसार
तेजोलेश्या को आन्तर सुखरूप समझनी चाहिए। श्री भगवती सूत्र के चौदहवें शतक में देवों की तेजोलेश्या ( सुखानुभव) के साथ श्रमण की तेजोलेश्या की तुलना की गयी है । टीकाकार महर्षि ने तेजोलेश्या का उर्थ 'सुखासिकाम' किया है । अर्थात् सुखानुभव |
एक माह के दीक्षा - पर्यायवाला श्रमण वाणव्यंतर देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर जाता है । दो माह के दीक्षा-पर्यायवाला श्रमण भवनपति देवों को तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है । तीन माह के दीक्षा - पर्यायवाला असुरकुमार देवों की, चार माह के दीक्षा-पर्यायवाला ज्योतिष देवों की, पाँच माह के दीक्षा - पर्यायवाला सूर्य-चंद्र की, छह माह के दीक्षा - पर्यायवाला सौधर्म इशान देवों की, सात माह के दीक्षापर्यायवाला सनत्कुमार- माहेन्द्र की, आठ माह के दीक्षा - पर्यायवाला ब्रह्म और लांतकदेवों की, नौ माह के दीक्षा - पर्यायवाला महाशुक्र और सहस्वार की, दस माह के दीक्षा - पर्यायवाला आनत, प्राणत, आरण और अच्युत की, ग्यारह माह के दीक्षा - पर्यायवाला ग्रैवेयक - देवों की और बारह माह के दीक्षा - पर्यायवाला अनुत्तरवासी देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर जाता है ।
1. द्वितीय अष्टक 'मग्नता' : श्लोक ५
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