________________
लोकसंज्ञा-त्याग
३४३
आजकल लोकोत्तर-मार्ग में भी लोक संज्ञा-प्रेमी अत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं । यह खेदजनक नहीं तो क्या है ? अनादि-काल से चले आ रहे जिनशासन की धुरा वहन करनेवाले ही जब लोकसंज्ञा की मोहक जाल में फंस जाते हैं, तब दूसरा मागे ही क्या रहा ? अतः उपाध्यायजी महाराज मर्म-प्रहार कर रहे हैं ।
आमतौर पर से लोकसंज्ञा-ग्रस्त जीव 'लोकहित' का बहाना करते हैं । यह भी कभी संभव है कि लोकहित, लोगों की आत्मा को समझे बिना ही कर सकें ? क्योंकि लोकसंज्ञाग्रस्त जीव हिताहित का निर्णय करने में कभी सक्षम-समर्थ नहीं होता । वह हित को अहित और अहित को हित का करार देते विलम्ब नहीं करेगा । उस के मन में जीव-मात्र के प्रात्म-कल्याण की भावना का सर्वथा अभाव होता है | वह प्रायः ऐसी ही प्रवृत्तियाँ करेगा कि जिसमें उसको यश मिलता होगा। और उसे 'लोकहित' का सुहाना लेबल लगा देगा । ऐसी परिस्थिति में एकाध जौहरी सदृश महामुनि ही अपने आप को बचा लेता है । अतः समग्र दृष्टि से लोकसंज्ञा का परित्याग करना ही हितावह है ।
आत्मसाक्षिकसद्धर्मसिद्धौ कि लोकयात्रया !
तत्र प्रसन्नचन्द्रश्च भरतश्च निदर्शने ॥७॥१८३॥ अर्थ :- ऐसा सद्धर्म कि जिसमें साक्षात प्रात्मा ही साक्षी हो, के प्राप्त होने
पर भला लोक-व्यवहार का क्या काम है ? इसके लिए प्रसन्नचंद्र
. राजर्षि और सम्राट भरत के उदाहरण यथोचित हैं । विवेचन : चक्रवर्ति भरतदेव !
प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र !
क्या तुम जानते हो, उन्हें केवलज्ञान कैसे प्राप्त हुआ? एक बार वे स्नानादि आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त हो,श्रेष्ठ वस्राभूषण धारण कर, स्वनिर्मित दर्पण-महल में नए थे । सिर्फ यह देखने के लिए कि, 'मैं कितना सुन्दर और सुशोभित लगता हूँ, इस रूप में !' दर्पण में अपना माहक मुख-मंडल और सुगठित अंग-प्रत्यंगों को अभी देख ही रहे थे कि सहसा अंगुली में से सुवर्ण-मुद्रिका नीचे गिर गयी ! मुद्रिकाविहीन अंगुली से शारीरिक शोभा में अन्तर पड गया । उन्हों ने एक एक कर सभी अलंकार उतार दिये पीर पुन: दर्पण में झांका । अलंकारविहीन शरीर का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org