________________
उपशम श्रेणी ]
[ ६३
करते हैं । अशुभ प्रकृति के रस में हानि करते हैं, पूर्व स्थितिबंध की अपेक्षा से पल्योपम के असंख्यात भाग न्यून.... न्यून.... स्थितिबंध करता है | परंतु यहां स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि या गुणसंक्रम नहीं होता है, क्योंकि उसके लिए आवश्यक विशुद्धि का अभाव होता है ।
अन्तर्मुहूर्त के बाद अपूर्वकरण करता है । यहाँ स्थितिघात आदि पांचों होते हैं । अपूर्वकरणकाल समाप्त होने के बाद अनिवृत्तिकरण होता है, इसमें भी स्थितिघातादि पांचों होते हैं । इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त का ही होता है । इस अनिवृत्तिकरण का संख्यात भाग बीतने पर जब एक भाग बाकी रहता है तब अन्तरकरण करता है । अनन्तानुबंधी कषाय के एक आवलिका प्रमाण निषेकों को छोड़कर ऊपर के निषेकों का अन्तरकरण करता है । अन्तरकरण के दलिकों को वहाँ से उठा उठा कर बध्यमान अन्य प्रकृतियों में डालता है; और नीचे की स्थिति जो एक आवलिका प्रमाण होती है उसके दलिक को भोगी जा रही अन्य प्रकृति में 'स्तिबुक संक्रम' द्वारा डालकर भोगकर क्षय करता है ।
अन्तरकरण के दूसरे समय में अन्तरकरण की ऊपर की स्थिति वाले दलिकों का उपशम करते हैं । पहले समय में कुछ दलिकों का उपशम करते हैं, दूसरे समय में असंख्यात गुना, तीसरे समय में उससे असंख्यातगुना । इस प्रकार प्रति समय असंख्यातगुना - असंख्यातगुना दलिकों का उपशम करते हैं । अन्तर्मुहूर्त पूर्ण होते ही संपूर्ण अनंतानुबंधी कषायों का उपशम होता है ।
उपशम की व्याख्या :
धूल के ऊपर पानी डालकर घन के द्वारा कूटने से जैसे धूल जम जाती है इसी तरह कर्मों पर विशुद्धिरूप जल छींटकर अनिवृत्तिकरणरूपी घन द्वारा कूटने से जम जाती है ! यही उपशम कहलाता है । उपशम होने के बाद उदय, उदीरणा, निधत्ति, निकाचना आदि करण नहीं लग सकते हैं अर्थात् उपशम हुए कर्मों का उदय.... उदीरणा आदि नहीं होते हैं ।
अन्य मत :
कुछ आचार्य अनंतानुबंधी कषाय का उपशमन नहीं मानते हैं, परंतु विसंयोजना या क्षपण ही मानते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org