Book Title: Gyansara
Author(s): Yashovijay Upadhyay, Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 607
________________ पुद्गल परावर्त काल ] [ ७१ परन्तु मान लो कि जीव की पहले आकाश प्रदेश में मरने के बाद तीसरे या चौथे आकाश प्रदेश में मृत्यु होती है तो उसकी गणना नहीं होगी । अगर पहले के बाद दूसरे आकाशप्रदेश में मृत्यु हो तब ही गणना हो सकती है । (५) बादर काल पुद्गलपरावर्त : उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के जितने समय (परम सूक्ष्म काल विभाग) हैं, उन समयों को एक जीव स्वयं की मृत्यु द्वारा क्रम से या उत्क्रम से स्पर्श करे तब बादर काल पुद्गलपरावर्त कहा जाता है । (६) सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्त : उत्सपिणी और अवसर्पिणी के समयों को एक जीव अपनी मृत्य द्वारा क्रम से ही स्पर्श करे उसे सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्त कहते हैं । जैसे कि अवसर्पिणी के प्रथम समय में किसी जीव की मृत्यु हुई, उसके बाद अवसर्पिणी और उत्सर्पिणो बीत गई और वापिस अवसर्पिणी के दूसरे समय में मृत्यु प्राप्त की हो तो वह दूसरे समय का मृत्यु द्वारा स्पर्श गिना जाएगा। . (७) बादर भाव पुद्गलपरावर्त असंख्य लोकाकाश प्रदेशों के जितने अनुभाग बंध के अध्यवसाय स्थान हैं, उन अध्यवसायस्थानों को एक जीव मृत्यु द्वारा क्रम से या उत्क्रम से स्पर्श करने में जितना समय लगाता है उस काल को बादर भाव पुद्गलपरावर्त कहते हैं । (८) सूक्ष्म भाव पुद्गलपरावर्त 1क्रमशः सब अनुभागबंध के अध्यवसाय स्थानों को जितने समय में मृत्य द्वारा स्पर्श किया जाता है, उस कालविशेष को सूक्ष्म भाव पुद्गलपरावर्त कहते हैं । __1. अनुभागबंध स्थान का वर्णन 'प्रवचनसारोद्धार' ग्रंथ में इस प्रकार है : तिष्ठति अस्मिन् जीव इति स्थान; एकेन काषायिकेणध्यवसायेन गृहीतानां कर्मपुद्गलानां विवक्षितैकसमयबद्धरससमुदायपरिमाणम् । अनुभाग बंध स्थानानां निष्पादका ये कषायोदयरूपा अध्यवसायविशेषा तेऽप्यनुभागबन्धस्थानानि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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