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[ ज्ञानसार
'मिच्छामि दुक्कड' कहना चाहिए । परंतु जान बूझकर जो दोष करता है और बार बार करता है तो उन दोषों की शुद्धि 'मिच्छामि दुक्कडं ' से नहीं होगी ।
( ३ ) तथाकार : स्वयं के स्वीकार किये हुए सुगुरू का वचन बिना किसी विकल्प के 'तहत्ति' कहकर स्वीकार कर लेना चाहिए ।
( ४ ) आवश्यकी ( आवस्सही ) : ज्ञान- दर्शन - चारित्र की आराधना के लिये मकान के बाहर निकलते ही 'आवस्सही' बोलकर निकलना चाहिए। आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाना उसे आवश्यकी कहते हैं ।
(५) नैषेधिकी ( निस्सीही ) : आवश्यक कार्य पूर्ण करके साधु मकान में आये तब प्रवेश करते ही 'निस्सीही' बोलकर प्रवेश करे ।
(६) पृच्छा : कोई काम करना हो तो गुरुदेव को पूछे - 'भगवन् ! यह काम मैं करूं ?'
(७) प्रतिपृच्छा : पहले किसी काम के लिए गुरुदेव ने मना कर दिया हो परंतु वर्तमान में वह काम उपस्थित हो गया हो तो गुरुमहाराज को पूछे कि : 'भगवन् ! पहले आपने यह काम करने के लिए मना किया था परंतु अब इसका प्रयोजन है, अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं यह कार्य करूं ?' गुरु महाराज जैसा कहे वैसा करे ।
'प्रतिपृच्छा' का दूसरा अर्थ यह है कि किसी काम के लिए गुरुमहाराज ने अनुमति दे दी हो तो भी वह कार्य शुरू करते समय पुनः गुरुमहाराज को पूछना चाहिए ।
( ८ ) छंदणा : साधु गोचरी लाकर सहवर्ती साधुओं को कहे, 'मैं गोचरी ( भिक्षा) लेकर आया हूँ, जिन्हें जो उपयुक्त हो वह इच्छानुसार ग्रहण करें ।'
( ६ ) निमंत्रण : गोचरी जाने के समय सहवर्ती साधुओं को पूछे ( निमंत्रण दे ) कि 'मैं आपके लिए योग्य गोचरी लाऊँगा ।'
(१०) उपसंपत् : विशिष्ट ज्ञान दर्शन - चारित्र की आराधना के लिए एक गुरुकुल से दूसरे गुरुकुल में जाना ।
इन दस प्रकार के व्यवहार को सामाचारी कहते हैं । साधु-जीवन में इस व्यवहार का पालन मुख्य कर्तव्य है ।
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