Book Title: Gyansara
Author(s): Yashovijay Upadhyay, Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 618
________________ ८२ ] [ ज्ञानसार . (१) यथार्थ में एक नाम सर्वत्र बहत प्रसिद्ध होता है और वही नाम दूसरे लोग भी रखते हैं। उदाहरणार्थ 'इन्द्र' यह नाम देवों के अधिपति के रुप में प्रसिद्ध है और यह नाम ग्वाले के लड़के का भी रख देते हैं। (२) 'इन्द्र' शब्द का जो ‘परम ऐश्वर्यवान्' अर्थ है वह ग्वाले के लड़के के लिए प्रयुक्त नहीं होगा । (३) 'इन्द्र' शब्द के जो पर्याय 'शक' 'पुरन्दर' 'शचि-पति' आदि हैं वे पर्याय ग्वाले के पुत्र इन्द्र के लिये प्रयुक्त नहीं होंगे । _ 'यादृच्छिक' प्रकार में ऐसे नाम आते हैं कि जिनका व्युत्पत्ति अर्थ नहीं होता है । इसमें तो स्वेच्छा से ही नाम दिये जाते हैं । ये नाम जीव और अजीव के हो सकते हैं । स्थापना निक्षेप : 'यत्त तदर्थ वियूक्तं तदभिप्रायेण यच्च तत्करणि । लेप्यादिकर्म तत्स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च ।। - भाव इन्द्र आदि का अर्थ रहित (परन्तु अर्थ के अभिप्राय से) साकार या निराकार जो किया जाता है उसे स्थापना कहते हैं। - भाव-इन्द्रादि के साथ समानता हो उसे साकार स्थापना कहते हैं। . भाव-इन्द्रादि के साथ असमानता हो उसे निराकार स्थापना कहते हैं । काष्ठ, पत्थर, हाथीदांत की मूर्तियाँ, प्रतिमायें आदि को साकार स्थापना कहते हैं । ये दो तरह की होती हैं । (१) शाश्वत् (२) अशाश्वत् । देवलोक आदि में शाश्वत् जिन प्रतिमाएं होती हैं, जबकि दूसरी प्रतिमायें शाश्वत् नहीं भी होती हैं । - शंख आदि में जो स्थापना की जावे उसे निराकार स्थापना कहते हैं । शाश्वत जिन प्रतिमाओं में 'स्थापना' शब्द की व्यत्पत्ति 'स्थाप्यते इति स्थापना' चरितार्थ नहीं होती है। क्योंकि वे शाश्वत् हैं । शाश्वत् 2. अनुयोग द्वार-सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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