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उपशम श्रेणी ]
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अन्तरकरण करके अंतमुहर्त काल में नपुंसकवेद का उपशमन करता है । उसके बाद अन्तमुहूर्त काल में स्त्रीवेद का उपशमन करता है । उसके बाद अन्तमुहूर्त में हास्यादि षट्क का शमन करता है और उसी समय पुरुषवेद के बंध-उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है । इसके उपरान्त दो आवलिका काल में (एक समय कम ) सम्पूर्ण पुरुषवेद का विच्छेद करता है । __फिर अन्तर्मुहूर्त काल में एक साथ ही अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकषाय का उपशमन करता है । ये उपशांत होते हो उसी समय संज्वलन क्रोध के बन्ध-उदय-उदीरणा का विच्छेद होता है । इसके बाद आवलिका (एक समय कम) में संज्वलन क्रोध का उपशमन करता है। काल के इस क्रम से ही अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानावरण मान का एक साथ ही उपशमन करता है । फिर संज्वलन मान का उपशमन करता है । (बंध-उदय-उदीरणा का विच्छेद करता है ।)
इसके उपरांत वह लोभ का वेदक बनता है। लोभवेदनकाल के तीन विभाग हैं : (१) अश्वकर्ण-करण काल (२) किट्टिकरण-काल (३) किट्टिवेदन-काल
(१) प्रथम विभाग में संज्वलन लोभ की दूसरी स्थिति से दलिकों को ग्रहण कर प्रथम स्थिति बनाता है और वेदन करता है । अश्वकर्ण-करणकाल में रहा हुआ जीव प्रथम समय में ही अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन- इन तीनों लोभ का एक साथ उपशमन प्रारम्भ करता है । विशुद्धि में चढता हुआ जीव अपूर्व स्पर्धक करता है । इसके बाद संज्वलन माया का समयन्यून दो आवलिका काल में उपशमन करता है । इस तरह अश्वकणे करण समाप्त होता है ।
(२) किट्रिकरण-काल में पूर्व स्पर्धक और अपूर्व स्पर्धकों में से द्वितीय स्थिति में रहे हुए दलिकों को लेकर प्रति समय अनंत किट्टियाँ करता है । किट्रोकरण काल के चरम-समय में एक साथ अप्रत्याख्याना
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