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[ ज्ञानसार
दर्शनत्रिक का उपशमन :
क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि आत्मा (संयम में रहते हुए) एक अन्तमुहर्त काल में दर्शनत्रिक, (समकित मोहनीय, मिश्र मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय) का उपशमन करते हैं । उपशमन करते हुए-पूर्वोक्त तीन करण करते हुए बढ़ती विशुद्धि वाला अनिवत्तिकरण काल के असंख्य भाग के बाद अन्तरकरण करता है। अन्तरकरण में सम्यक्त्व की प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण करता है और मिथ्यात्व-मिश्र की आवलिका प्रमाण स्थिति करता है । इसके बाद तीनों प्रकृति के अन्तमुहर्त प्रमाण अंतरकरण के दलिक को वहाँ से उठा उठा कर सम्यक्त्व की अन्तमुहर्त प्रमाण प्रथम स्थिति में डालता है । मिथ्यात्व और मिश्र का एक आवलिका प्रमाण जो प्रथम स्थितिगत दलिक है उसे स्तिबुक संक्रम द्वारा सम्यक्त्व की प्रथम स्थिति में संक्रमण कराता है। सम्यक्त्व के प्रथम स्थितिगत दलिकों को भोगकर क्षय करता है। इस तरह क्रमशः दर्शन त्रिक का क्षय होने के उपरान्त उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है । दर्शनत्रिक की उपर्युक्त स्थिति में रहे हुए दलिकों का उपशमन करता है । इस प्रकार दर्शनत्रिक का उपशमन करते हुए प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानक में सैकड़ों बार आवागमन करता हुआ वापिस चारित्र मोहनीय का उपशमन करने के लिए प्रवृत्त होता है । चारित्र मोहनीय का उपशमन :
चारित्र मोहनीय कर्म का उपशमन करने के लिए पुनः तीन करण करने पड़ते हैं। उसमें यह विशेष है कि यथाप्रवृत्तिकरण अप्रमत्त गुणस्थानक में होता है । अपूर्वकरण अपूर्वकरण गुणस्थानक में होता है । अपूर्वकरण में स्थितिघातादि पांचों कार्य होने के बाद अनिवत्तिकरण गुणस्थानक में अनिवत्तिकरण करता है । यहाँ भी पूर्वोक्त पांचों कार्य होते हैं।
___अनिवत्तिकरण- काल के संख्यात भाग बीत जाने के बाद मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों का अंतरकरण करता है । (दर्शन सप्तक के अलावा २१ प्रकृति) वहाँ जो वेद और संज्वलन कषाय का उदय हो उसके उदयकाल प्रमाण प्रथम स्थिति करता है । शेष ११ कषाय और ८ नोकषाय की आवलिका-प्रमाण प्रथम स्थिति करता है ।
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