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पुरुषार्थ परस्परविरोधी होगा तो कार्य सिद्धि प्रसंभव है ।
-क्षय असम्भव
कर्मक्षय के पुरूषार्थ और पुण्य बधन के पुरूषार्थ में जमीन-आसमान का अन्तर है । पुण्य-बंधन हेतु आरम्भित पुरुषार्थं से कर्म - है । हालाँकि पुण्य - बंघन के विविध उपाय शास्त्रों में अवश्य बताये गये । लेकिन उन उपायों से कर्म-क्षय अथवा सिद्धि नहीं होगो, पुण्यबन्धन अवश्य होगा!
कोई कहता है : "हिंसक यज्ञ में भी विविदिषा (ज्ञान) विद्यमान है ।" लेकिन यह सत्य नहीं है। हिंसक यज्ञ का उद्देश्य अभ्युदय है, निःश्रेयस् नहीं । साथ ही निःश्रेयस के लिए हिंसक यज्ञ नहीं किया जाता ! पुत्र - प्राप्ति के लिए सम्पन्न यज्ञ में विविदिषा नहीं होती, ठीक उसी तरह सिर्फ स्वर्गीय सुखों की कामना से सम्पन्न दानादि क्रियाएँ भी सुख -: -प्राप्ति हेतु नहीं होती ।
अलबत्त, दानादि क्रियाओं को यहाँ हेय नहीं बतायी गयी हैं, परंतु उससे पुण्य - बंधन होता है, यह बताया गया है । यदि तुम्हारा ध्येय कर्मक्षय ही है, तो ज्ञान-यज्ञ करो ! लेकिन ऐसी भूल कदापि न करना की पुण्य - बंधन की क्रियाओं का परित्याग कर पाप-बंधन की क्रियाओं में सुध-बुध खो बैठो और कर्म-क्षय का उद्देश्य ही भूल जाओ । ब्रह्मार्पणमपि ब्रह्मयज्ञान्तर्भावसाधनम् ।
ब्रह्माग्नौ कर्मणो युक्तं स्वकृतत्वस्मये हुते ||६|| २२२ ।।
ज्ञानसार
अर्थ : ब्रह्म यज्ञ में अन्तर्भाव का साधन, ब्रह्म को समर्पित करता, लेकिन ब्रह्मरूप अग्नि में कर्म का और स्व-कर्तृत्व के अभिमान का योग करते हुए भी युक्त है ।
विवेचन : गीता में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं :
कांक्षतः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः । क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मणा || - अध्याय ४ श्लोक १२
" मानव-लोक में जो लोग कर्मों की फलसिद्धि को चाहते हुए देवीदेवताओं का पूजन करते हैं, उन्हें कर्म-जन्य फलसिद्धि ही प्राप्त होती
है ।"
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