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पांच आचार ]
[ २३ बाह्य इसलिए कहा जाता है कि [१] बाह्य शरीर को तपाने वाला है। [२] बाह्य लोक में तपरुप प्रसिद्ध है। [३] कुतीथिकों ने स्वमत से सेवन किया है ।
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और ध्यान, इन छः प्रकार के आभ्यंतर तप से आत्मा को विशुद्ध करना । ५. वीर्याचार
उपरोक्त चार आचारों में मन-वचन-काया का वीर्य [शक्ति] स्फुरित करके सुन्दर धर्मपुरूषार्थ करना ।
इस प्रकार पंचाचार का निर्मल रुप से पालन करने वाली आत्मा, मोक्षमार्ग की तरफ प्रगति करती है और अन्त में मोक्ष प्राप्त करती है।
६.
आयोजिका-करण समुद्घात योगनिरोध
'श्री पंचसंग्रह' ग्रंथ के आधार पर आयोजिका-करण, समुद्घात तथा योगनिरोध का स्पष्टीकरण किया जाता है । १. आयोजिका-करण
सयोगी केवली गुणस्थान पर यह करण किया जाता है । केवली की दृष्टिरुप मर्यादा से अत्यन्त प्रशस्त मन-वचन-काया के व्यापार को 'आयोजिका करण' कहा जाता है । यह ऐसा विशिष्ट व्यापार होता है कि जिसके बाद में समुद्घात तथा योगनिरोध की क्रियाएं होती हैं।
कुछ आचार्य इस करण को 'आवजितकरण' भी कहते हैं । अर्थात तथाभव्यत्वरुप परिणाम द्वारा मोक्षगमन की ओर सन्मुख हुई आत्मा का अत्यन्त प्रशस्त योगव्यापार ।
कुछ दूसरे आचार्य इसे 'आवश्यककरण' कहते हैं । अर्थात् सब केवलियों को यह 'करण' करना आवश्यक होता है । समुद्घात की क्रिया सभी केवलियों के लिए आवश्यक नहीं होती।
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