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[ ज्ञानसार
१०. चौदह गुणस्थानक आत्मगुणों की उत्तरोत्तर विकास-अवस्थाओं को 'गुणस्थानक' कहा जाता है । ये अवस्थाएं चौदह हैं । चौदह अवस्थाओं के अन्त में आत्मा गुणों से परिपूर्ण बनती है, अर्थात् अनंतगुणमय आत्मस्वरुप प्रगट हो जाता है ।
गुण विकास की इन अवस्थाओं के नाम भी उस-उस अवस्था के अनुरूप रखे गए हैं । [१] मिथ्यात्व [२] सास्वादन [३] मिश्र [४] सम्यग्दर्शन [५[ देशविरति [६] प्रमत्त श्रमण [७] अप्रमत्त श्रमण [८] अपूर्वक रण [६] अनिवृत्ति [१०] सूक्ष्मलोभ [११] शान्तमोह [१२] क्षीणमोह [१३] सयोगी [१४] अयोगी।
अब यहां एक-एक गुणस्थानक के स्वरूप का संक्षेप में विचार करते हैं। १. मिथ्यादृष्टि गुणस्थानक __तात्त्विक दृष्टि से जो परमात्मा नहीं; जो गुरू नहीं; जो धर्म नहीं, उसे परमात्मा-गुरु और धर्म मानना, वह मिथ्यात्व कहलाता है। परन्तु यह व्यक्त मिथ्यात्व कहलाता है। मोहरूप अनादि अव्यक्त मिथ्यात्व तो जीव में हमेशा रहता है । वास्तव में मिथ्यात्व यह गुण नहीं है, फिर भी 'गुणस्थानक' व्यक्त मिथ्यात्व की बुद्धि को अनुलक्षित करके कहा गया है। 1'व्यक्तमिथ्यात्वधीप्राप्तिगुणस्थानतयोच्यते ।' मिथ्यात्व का प्रभाव
मदिरा के नशे में चकचूर मनुष्य जिस प्रकार हिताहित को नहीं जानता, उसी प्रकार मिथ्यात्व से मोहित जीव धर्म या अधर्म को नहीं समझता । विवेक नहीं कर सकता । धर्म को अधर्म तथा अधर्म को धर्म मान लेता है । २. सास्वादन-गुणस्थानक
पहले औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद, अनंतानुबंधी कषायों में से कीसो एक से जीव फिसलता है परन्तु मिथ्यात्व दशा को प्राप्त करने * 'गुणस्थानक्रमारोह' प्रकरणे श्लोक : २-३-४-५ 1व्यक्त मिथ्यात्व की प्राप्ति को गुणस्थान कहा जाता है ।
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