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गुणस्थानक ] ९. अनिवृत्ति बादरसंपराय-गुणस्थानक
एक समय में अर्थात् समान समय में इस गुणस्थानक पर आये हए सभी जीवों के अध्यवसाय-स्थान समान होते हैं । अर्थात् आत्मा की यह एक ऐसी अनुपम गुण-अवस्था है कि इस अवस्था में रहे हुए सभी जीवों के चित्त की एक-समान स्थिति होती है। अध्यवसायों की समानता होती है । परन्तु इस अवस्था का काल मात्र एक अन्तर्मुहूर्त होता है । शब्द व्युत्पत्ति इस प्रकार है: बादर का मतलब स्थूल, संपराय का अर्थ कषायोदय । स्थल कषायोदय निवत्त नहीं हुआ हो, ऐसी आत्मावस्था का नाम अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थानक है ।
इस गुणस्थान पर प्रथम समय से आरंभ करके प्रति समय अनंतगुण विशुद्ध अध्यवसायस्थान होते हैं, एक अन्तर्मुहर्त में जितना समय हो उतने अध्यवसाय के स्थान इस गुणस्थानप्राप्त जीवों के होते हैं ।
इस गुणस्थान पर दो प्रकार के जीव होते हैं (१) क्षपक और (२) उपशमक । १०. सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानक
सूक्ष्म लोभकषायोदय का यह गुणस्थानक है । अर्थात् यहां लोभ का उपशम हो जाता है अथवा क्षय कर दिया जाता है । ११. उपशान्तकषाय-वीतराग-छग्रस्थ गुणस्थानक
संक्रमण-उद्वर्तना-अपवर्तना वगैरह करणों द्वारा कषायों को विपाकोदय-प्रदेशोदय दोनों के लिए अयोग्य बना दिया जाता है। अर्थात् कषायों का ऐसा उपशम कर दिया जाता है कि यहां न तो उनका विपाकोदय आता है और न प्रदेशोदय ।
इस गुणस्थान पर जीव के राग और द्वेष ऐसे शान्त हो गए होते हैं कि वह वीतरागी कहलाता है । उपशान्तकषायी वीतराग होता है । १२. क्षीणकषाय-वीतराग-छमस्थ-गुणस्थानक
'क्षीणा:कषाया यस्य सः क्षीणकषायः' आत्मा में अनादिकाल से रहे हुए कषायों का यहां सर्वथा क्षय हो जाता है।
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