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[ जानमार १३. सयोगी केवली-गुणस्थानक
'केवलं ज्ञानं दर्शनं च विद्यते यस्य सः केवली ।' जिसे केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन हों वह केवली होता है ।
'सह योगेन वर्तन्ते ते सयोगा-मनोवाक्कायाः ते यस्य विद्यन्ते सः सयोगी।' मन-वचन-काया के योगों से सहित हो वह सयोगी कहलाता है।
केवलज्ञानी को गमनागमन, निमेष-उन्मेषादि काययोग होते हैं, देशनादि वचनयोग होता है । मनःपर्यायज्ञानी और अनुत्तर-देवलोकवासी देवों द्वारा मन से पूछे गये प्रश्नों का जवाब मन से देनेरुप मनोयोग होता है ।
इस सयोगी-केवली अवस्था का जधन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोनपूर्वकोटि वर्ष होता है । जब एक अन्तर्मुहुर्त आयुष्य शेप रहता है तब वे 'योगनिरोध' करते हैं ।
योगनिरोध करने के बाद सूक्ष्म क्रिया-अनिवत्ति नामका शुक्ल ध्यान ध्याते हुए शैलेशी में प्रवेश करते हैं । १४. अयोगी केवलो-गुणस्थानक
शैलेशीकरण का काल (समय) पाँच हस्व स्वर के उच्चारण काल जितना होता है और यही अयोगी-केवली गुणस्थानक का काल है ।
शैलेशीकरण के चरम समय के पश्चात् भगवंत उर्ध्वगति प्राप्त करते हैं । अर्थात् ऋज श्रेणि से एक समय में ही लोकान्त में चले जाते हैं ।
आत्मा की पूर्णता प्राप्त करने का यह गुणस्थानकों का यथावस्थित विकासक्रम है। अनंत आत्माओं ने इस विकासक्रम से पूर्णता प्राप्त की है और अन्य जीव भो इसो विकासक्रम से पूर्णता प्राप्त करेंगे ।
११. नयविचार + प्रमाण से परिच्छिन्न अनंतधर्मात्मक वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाले (दूसरे अंशों का प्रतिक्षेप किए बिना) अध्यवसाय विशेष को 'नय' कहा जाता है । + प्रमाणपरिच्छिन्नस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः एकदेशग्राहिणस्तदितरांशाप्रतिक्षेपिणोऽध्यवसायविशेषा नयाः ।
---- जैन तर्कभाषायाम्
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