________________
३० ]
[ ज्ञानसार का प्रभाव रहता नहीं, इससे आत्मा अप्रमादी-अप्रमत्त, महाव्रती बन जाती है ।
प्रमाद का नाश हो जाने से आत्मा व्रत-शील........आदि गुणों से अलंकृत और ज्ञान-ध्यान की संपत्ति से शोभायमान बनती है । ८. अपूर्वकरण गुणस्थानक
अभिनव पाँच पदार्थों के निर्वर्तन को 'अपूर्वकरण' कहा जाता है। ये पाँच पदार्थ इस प्रकार हैं - (१) स्थितिघात (२) रसघात (३) गुणश्रेणि (४) गुणसंक्रम और (५) अपूर्व स्थितिबंध । '
१. स्तितिघात : ज्ञानावरणीयादि कर्मों की दीर्घ स्थिति का अपवर्तनाकरण से अल्पीकरण ।
२. रसघात : कर्म.परमाणओं में रही हई स्निग्धता की प्रचरता को अपवर्तना-करण से अल्प करना ।
यह स्थितिघात और रसघात पहले के गुणस्थानों में रहा जीव भी करता है। परन्तु उन गुणस्थानों में विशुद्धि अल्प होने से स्थितिघात तथा रस घात अल्प करता है । यहां विशुद्धि का प्रकर्ष होने से अति विशाल-अपूर्व करता है । ३. गुणश्रेणि : ऐसे कर्मदलिकों को कि जिनका क्षय दीर्घकाल में होना है, उन कर्मदलिकों को अपवर्तनाकरण से विशुद्धि के प्रकर्ष द्वारा नीचे लाए, अर्थात् एक अंतर्मुहूर्त में उदयावलिका के ऊपर, जल्दी क्षय करने के लिये, प्रतिक्षण असंख्य गुणवद्धि से वह दलिकों की रचना करे ।
४. गुणसंक्रम : बंधती हई शुभ-अशुभ कर्मप्रकृति में अबध्यमान शुभाशुभ कमंदलिकों को, प्रतिक्षण असंख्य गुणवृद्धि से डालना ।
५. अपूर्व स्थितिबंध : अशुद्धिवश जीव पहले कर्मों की दीर्घ स्थिति बाँचता था, अब विशद्धि दारा कर्मों को स्थिति न्योपम के असंख्यातने भाग में हीन-हीनतर-हीनतम बाधता है ।
+ अपर्व-अभिनवं करणं-स्थितिघात-गुणश्रेणि-गुणसंक्रमथितिबंधानां पञ्चानां पदार्थानां निर्वर्तनं यस्यासौ अपर्वकरणः ।
प्रवचनसारोद्धारे
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org