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[ ज्ञानसार 'उत्कुटक' आसन का अभ्यास करे, क्योंकि जिनकल्प में 'औपग्रहिक' उपधि नहीं रखी जाती, इसलिये बैठने का आसन नहीं होता और साधु आसन बिछाये बिना सीधा भूमि-परिभोग नहीं कर सकता, इससे उत्कुटुक (उभड़क) आसन से ही जिनकल्पिक रहता है । अतः इसका अभ्यास पहले कर लेना चाहिए । जिनकल्प-स्वीकार
के प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव देखकर, संघ को इकठ्ठा कर ( अगर वहाँ संघ न हो तो स्व-गण के साधुओं को इकठ्ठा कर) क्षमापना करे । परमात्मा तीर्थकर देव के सान्निध्य में अथवा तीर्थंकर न हो तो गणधर के सान्निध्य में क्षमापना करे ।।
जइ कि चि पमाएणं न सुट्ठ मे वट्टियं मइ पुट्वि ।
तं भे खामेमि अहं निस्सल्लो निक्कसाओ अ ।। 'निशल्य और निष्कषाय वनकर मैं, पूर्व के प्रमाद से जो कोई तुम्हारे प्रति दुष्ट कार्य किया हो, उसकी क्षमा माँगता हूँ ।'
__ अन्य साधुओं से आनन्दाश्रु बहाते हुए भूमि पर मस्तक लगाकर क्षमापना करे ।
* साधु को दस प्रकार की समाचारी में से जिनकल्पी को (१) आवश्यिकी (२) नैषेधिकी (३) मिथ्याकार (४) आपृच्छा और (५) गृहस्थविषयक उपसंपत्, ये पाँच प्रकार की समाचारी ही होती है ।
के जिनकल्प स्वीकार करने वाले साधु को नववें पूर्व की तीसरी वस्तु तक का ज्ञान तो अवश्य होना ही चाहिए । उत्कृष्ट कुछ न्यून दस पूर्व ।
पहला संघयण (वज्रऋषभनाराच) होना चाहिये । बिना दीनता के उपसर्ग सहन करे
अगर रोग-आतंक पैदा हों तो उसको सहन करे । औषधादि चिकित्सा न करावे ।
लोच, आतापना, तपश्चर्या वगैरह की वेदना सहन करे । *जिनकल्पी अकेले ही रहे और विचरे ।
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