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जिनकल्प-स्थविरकल्प ]
[ ५३ 'अनापात-असंलोक' स्थंडिल भूमि पर मलोत्सर्ग करे । जल से शुद्धि न करे । जलशुद्धि की जरूरत ही नहीं पड़ती है । मल से बाह्य भाग लिप्त ही नहीं होता ।
* जिस स्थान में रहे वहाँ चूहे वगैरह का बिल हो तो बंद न करे। वसति-स्थान को खाते हुए पशुओं को न रोके । द्वार के किंवाड़ बंद न करे । सांकल नहीं लगावे ।
स्थान (उपाश्रयादि) का मालिक अगर किसी प्रकार की शर्त करके उतरने के लिये स्थान देता हो तो उस स्थान में नहीं रहे। किसी को सूक्ष्म भी अप्रीति हो जाय तो उस स्थान का त्याग कर दे।
जिस स्थान पर बलि चढ़ती हो, दीपक जलाने में आते हों, अंगार-ज्वालादि का प्रकाश पड़ता हो अथवा उस स्थान का मालिक कोई काम बताता हो, उस स्थान में जिनकल्पिक न रहे ।
तीसरी पोरसी में भिक्षाचर्या करे । अभिग्रह धारण करे । . भिक्षा अलेपकृत ले : मूंग-चने....वगैरह ।
जिस क्षेत्र (गांव) में रहे, उसके छः विभाग करे । प्रतिदिन एक-एक विभाग में भिक्षा के लिए जावे। उससे आधाकर्मी दोष वगैरह नहीं लगते ।
* एक बस्ती में अधिक से अधिक सात जिनकल्पिक रहें । परन्तु परस्पर संभाषण न करें । एक दूसरे की भिक्षा की गली का त्याग करें।
जिनकल्प स्वीकार करने वाले का जन्म कर्मभूमि में होना चाहिये। देवादि द्वारा संहरण होने पर अकर्मभूमि में भी हो सकता है।
* अवसर्पिणी में तीसरे-चौथे आरे में जन्मा हो ।
* सामायिक-छेदोपस्थानीय चारित्र में रहा हुआ मुनि जिनकल्प स्वीकार कर सकता है ।
महाविदेह क्षेत्र में सामायिक-चारित्र में रहा हुआ स्वीकार करता है।
परमात्मा धर्मतीर्थ की स्थापना करे, उसके बाद ही जिनकल्प स्वीकार करे ।
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