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पंचास्तिकाय
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उवभोज्जमिदिए हि य इंदिया काया मणो य कम्माणि । जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पुग्गलं जाणे ॥८२।।
'इन्द्रियों के उपभोग्य विषय, पाँच इन्द्रियां, औदारिकादि पाँच शरीर, मन और आठ प्रकार के ज्ञानावरणीयादि कर्म, जो कुछ भी मूर्त हैं, वह सब पुद्गल समझना' । श्रो 'तत्त्वार्थ सूत्र' में कहा है :
पञ्चविधानि शरीराण्यौदारिकादीनि वाड़ मनः प्राणापानाविति पुद्गलानामुपकारः ।
-स्वोपज्ञ-भाष्ये, अ० ५, सू० १६ औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण-ये पांच शरीर, वाणी, मन और श्वासोच्छवास, पुद्गलों का उपकार है, अर्थात् ये पुद्गलनिर्मित हैं।
__ इस प्रकार पंचास्तिकाय का स्वरुप और उसका कार्य संक्षेप में बताकर अब पंचास्तिकाय की सिद्धि की जाती है।
• धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय के बिना जीव और पुद्गलों की गति तथा स्थिति नहीं हो सकती । अगर धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय के बिना भी जीव-पुद्गल की गति-स्थिति हो सकती हो तो लोक की तरह अलोक में भी जीव-पुद्गल जाने चाहिये । अलोक अनंत है । इस लोक में से निकलकर जीव-पुद्गल अलोक में चले जायें और इस प्रकार लोक जीव-शून्य तथा पुद्गलशून्य वन जाय ! न तो ऐसा कभी देखा गया है और न ऐसा ईष्ट है। इसलिये जीव और पुद्गल की गति-स्थिति की उपपत्ति हेतु धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय का अस्तित्त्व सिद्ध होता है ।
. जीवादि पदार्थों का आधार कौन ? अगर आकाशास्तिकाय को नहीं मानते हैं तो जीवादि पदार्थ निराधार बन जायेंगे । धर्मास्तिकायअधर्मास्तिकाय जीवादि के आधार नहीं बन सकते । वे दोनों तो जीवपुद्गल की गति-स्थिति के नियामक हैं और दूसरे से साध्य कार्य तीसरा नहीं कर सकता । अतः जीवादिकों के आधार रुप से आकाशास्तिकाय की सिद्धि होती है।
- प्रत्येक प्राणी में ज्ञानगुण स्वसंवेदनसिद्ध है । गुणी के बगैर गुण का अस्तित्व कैसे हो सकता है ?
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