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यह 'कर्मबंध चार प्रकार से होता है बंध ( ३ ) अनुभागबंध ( ४ ) प्रदेशबंध ।
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- ( १ ) प्रकृतिबंध ( २ ) स्थिति
(१) कर्मपुद्गलों को ग्रहण कहना, कर्म और आत्मा की एकता 'प्रकृति बंध' कहलाता है । 'पुद्गलादानं प्रकृतिबंध ः कर्मात्मनोरैक्यलक्षणः ।' (तत्त्वार्थटीकायाम् )
ज्ञानसार
(२) कर्मपुद्गलों का आत्मप्रदेशों में अवस्थान वह स्थिति अर्थात् कर्मों का आत्मा में अवस्थानकाल का निर्णय होना वह स्थिति - बंध' कहलाता है। 'कर्मपुद्गलराशेः कर्त्रा परिगृहीतस्यात्मप्रदेशेष्ववस्थानं स्थितिः ।' (तत्त्वार्थ- टीकायाम् )
( ३ ) शुभाशुभ वेदनीयकर्म के बंध के समय ही रसविशेष बंधता है, जिसका विपाक नामकर्म के गत्यादि स्थानों में रहा हुआ जीव अनुभव करता है ।
(४) कर्मस्कंधों को आत्मा के सर्व प्रदेशों से योगविशेष से ( मनवचन काया के ) ग्रहण करना, वह प्रदेशबंध होता है । अर्थात् कर्मपुद्गलों का द्रव्यपरिणाम प्रदेशबंध में होता है । 'तस्य कर्तुं : स्वप्रदेशेषु कर्मपुद् गलद्रव्यपरिमाणनिरुपणं प्रदेशबंध: ' ( तत्त्वार्थ- टीकायाम् )
इस प्रकार संक्षेप में कर्म का स्वरुप और कर्मबंध का स्वरूप बताया गया है । विशेष जिज्ञासु को 'कर्मग्रंथ' 'कर्म प्रकृति' 'तत्त्वार्थ सूत्र' आदि ग्रंथों का अवलोकन करना चाहिए ।
१५. जिनकल्प स्थविरकल्प
श्री 'बृहत्कल्पसूत्र' आदि ग्रंथों में विस्तार से जिनकल्प तथा स्थविरकल्प का वर्णन देखने में आता है ।
ये दोनों कल्प ( आचार) साधु-पुरुषों के लिये हैं । गृहस्थों के लिये नहीं । दोनों कल्पों का प्रतिपादन श्री तीर्थंकर परमात्मा ने किया है । अर्थात् जिनकल्प का साधुजीवन और स्थविरकल्प का साधुजीवन तत्त्वार्थ, अ. ८, सूत्र
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2 ' प्रकृतिस्थित्यनुभाव प्रदेशास्तद्विधय: ।'
3 इति कर्मणः प्रकृतयो मूलाश्च तथोत्तराश्च निर्दिष्टाः । तासां यः स्थितिकालनिबन्धः स्थितिबन्ध उक्तः सः ॥
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— तत्त्वार्थ- टीकायाम्
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