Book Title: Gyansara
Author(s): Yashovijay Upadhyay, Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

View full book text
Previous | Next

Page 579
________________ पंचास्तिकाय ४३ धम्मस्थिकायमरसं अवण्णगंधं असहमफासं ।। लोगागाढं पुट्ट पिहुलमसंखादियपदेसं ॥८३।। –पंचास्तिकाये कार्य : गतिपरिणत जीव और पुद्गलों की गति में सहकारी कारण है । जिस प्रकार सरोवर, सरिता, समुद्र में रहे हए मत्स्यादि जलचर जंतुओं के चलने में जल निमित्त-कारण बनता है । जलद्रव्य गति में सहायक है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि मत्स्य को वह बलपूर्वक गति कराता है । सिद्ध भगवंत उदासीन होने पर भी सिद्धगुण के अनुराग में परिणत भव्य जीवों की सिद्धि में सहकारी कारण बनते हैं, उसी तरह धर्मास्तिकाय भी स्वयं उदासीन होने पर भी गतिपरिणत जीव-पुद्गल की गति में सहकारी कारण बनता है। जिस प्रकार पानी स्वयं गति किये बिना, मत्स्यों की गति में सहकारी कारण बनता है, उसी तरह धर्मास्तिकाय स्वयं गति किए बिना जीव-पुद्गलों की गति में सहकारी कारण बनता है । अधर्मास्तिकाय जैसा स्वरुप धर्मास्तिकाय का है वैसा ही स्वरुप अधर्मास्तिकाय का है। कार्य में भेद है। जीव-पुद्गलों की स्थिति में अधर्मास्तिकाय सहायक है। जिस प्रकार छाया पथिकों की स्थिरता में सहायक बनती है। अथवा जिस प्रकार पृथ्वी स्वयं स्थिर रही हुई अश्वमनुष्यादि की स्थिरता में बाह्य सहकारी हेतु बनती है। जीव-पुद्गलों की स्थिति का उपादान कारण तो स्वकीय स्वरुप ही है। अधर्मास्तिकाय व्यवहार से निमित्त कारण है । आकाशास्तिकाय लोकालोकव्यापी अनन्त प्रदेशात्मक अमूर्त द्रव्य है । “आकाशा1उदयं जह मच्छाणं गमणाणुगहयरं हवदि लोए । तह जीव पुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणेहि ॥८५।। -पञ्चास्तिकाये जह हवदि धम्मदव्व तह तं जाणेह दव्वमधम्मक्खं । ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ।। --पञ्चास्तिकाये लोकालोकव्याप्यनन्तप्रदेशात्मकोऽमूर्तद्रव्यविशेषः । -अनुयोगद्वारटीका 4जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्णा । तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्तं ॥९१।। -पंचास्तिकाये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636