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[ ज्ञानसार
२. समुद्घात
केवली को वेदनीयादि अघाती कर्म विशेष हों और आयुष्य कम हो तब उन दोनों को बराबर करने के लिए वेदनीयादि कर्म आयुष्य के साथ ही भोगकर पूर्ण हो जावें उसके लिये | यह समुद्घात की क्रिया की जाती है ।
प्रश्न : बहुत काल तक भोगने में आ सके ऐसे वेदनीयादि कर्मों का एकदम नाश करने से 'कृतनाश' दोष नहीं आता ? समाधानः बहुत समय तक फल देने के हेतु निश्चित हुए वेदनीयादि कर्म तथाप्रकार के विशुद्ध अध्यवसायरूप उपक्रम (कर्मक्षय के हेतु) द्वारा जल्दी से भोग लिये जाते हैं । उसमें 'कृतनाश' दोष नहीं आता । हां, कर्मों को भोगे बिना ही नाश कर दें तब तो दोष लगें, यहां ये कर्म जल्दी से भोग लिये जाते हैं । कर्मों का भोग [ अनुभव ] दो प्रकार से होता है । [१] प्रदेशोदय द्वारा, [२] रसोदय द्वारा । प्रदेशोदय द्वारा सब कर्म भोगे जाते हैं । रसोदय द्वारा कोई भोगा जाता है और कोई नहीं भी भोगा जाता है। रसोदय द्वारा भोगने पर ही सब कर्मों का क्षय होता है, अगर ऐसा माना जाय, तो असंख्य भवों में, तथाप्रकार के विचित्र अध्यवसाय द्वारा नरकादि गतियों में जो कर्म उपाजित किए हैं, उन सब का मनुष्यादि एक भव में ही अनुभव [भोग नहीं हो सकता । क्योंकि जिस-जिस गति योग्य कर्म बाँधे हों, उनका विपाकोदय उस गति में जाने पर ही होता है, तो फिर आत्मा का मोक्ष किस प्रकार हो?
जब आयुष्य अन्तर्मुहूर्त बाकी हो, तब समुद्घात किया जाता है।
* पहले समय में अपने शरीर प्रमाण और उर्ध्व-अधोलोक प्रमाण अपने आत्मप्रदेशों का दंड करे ।
दूसरे समय में आत्मप्रदेशों को पूर्व-पश्चिम अथवा उत्तर-दक्षिण में कपाट रुप बनायें ।
-गुणस्थान क्रमारोहे
* चेदायुषः स्थितियूं ना सकाशाद्वैद्यकर्मणः ।
तदा तत्तुल्यतां कर्तुं समुद्घातं करोत्यसौ ।। * दण्डं प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये ।
मन्थानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥ २७४ ।।
- प्रशमरति प्रकरणे
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