________________
ज्ञानसार चाहिए! काया की स्थिरता के साथ-साथ इष्टि की स्थिरता भी होना आवश्यक है। ऐसा न होने पर दुनिया के अन्य तत्त्व मन में घुसपैठ करने से बाज नहीं आएगें और ध्यान-भंग होते विलम्ब नहीं लगेगा ! द्रोपदी का पूर्वभव इसका साक्षी है। जब वह साध्वी ध्यान-ध्येय को पूर्ति हेतु नगर बहार गयी थी, तब उस को दृष्टि सामने वाले भवन में स्थित वेश्या पर पडी ! पांच पुरुषों के साथ वह वेश्या रतिक्रीडा में रत थी । साध्वी की दृष्टि में यकायक वह दृश्य प्रतिबिंबित हुआ । वह उस में खो गयी और अपने उद्देश्य का विस्मरण कर गयी । क्षणार्ध के लिए वह मन में बुदबुदायी: "यह कितनी सुखी है ? एक नहीं, द। नहीं, पांच-पांच प्रेमियों को एक मात्र प्रेमिका !" ध्येय रूप परमात्मा के बजाय वह दृश्य उसे अत्यंत प्रिय लगा। फलस्वरूप वही उस का ध्येय बन गया ! आगे चल कर द्रौपदी के भव में वह पांच पांडवों की पत्नी बनी ! परमात्मा के साथ तादात्म्य साधने के लिए दृष्टि-संयम अनिवार्य है। दृष्टिसंयम न रखने वाला साधक परमात्म-स्वरूप की साधना नहीं कर सकता ! अत: उसे हमेशा अपनी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर स्थिर करनी चाहिये।
७. मनोवृत्तिनिरोधकः मन के विचार इंद्रियों का अनुसरण करते हैं । निज चित्त को ध्येय में स्थिर करनेवाला साधक मनोवत्तियों का निरोध करता है ! तात्र वेग से प्रवाहित विचार-प्रवाह में अवरोध पैदा करता है ! लेकिन जहाँ ध्येय में चित्त लीन हो गया....इंद्रियों के पीछे दौडते मन पर प्रतिबंध या जाता है, वह भागना बंद करता है । आत्मा के साथ उस का सम्बंध जुडते ही अनायास इंद्रियों के साथ रहे उस के सम्बंध टूट जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में, 'मैं परमात्मा का ध्यान करु !' साचते हुए, राह देखने की जरूरत नहीं। स्वयं परमात्म-स्वरुप में आपको लीन कर दो। बस, इन्द्रियों के साथ सम्बंध-विच्छेद हुआ ही समझो !
८. प्रसन्न : न जाने कैसो अद्वितीय प्रसन्नता ठूस ठूस कर भरी होती है ध्यानी पुरुष के मन में । परमात्म-स्वरुप में लीन होने का प्रादर्श, ध्येय रखने वाला ज्ञानी-ध्यानी महापुरुष जब अपनी मंजिल पर पहुँचता है और अपने आदर्श को सिद्ध होता अनुभव करता है, तब उसकी प्रसन्नता की अवधि नहीं रहती। वह एक तरह के दिव्य प्रानन्द में डूब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org