________________
४६१
ज्ञानसार
रुद्धबाह्यमनोवृत्तौर्धारणाधारयारयात् ! प्रसन्नस्याप्रमत्तस्य चिदानन्दसुधालिहः ।।७।।२३६।। सामाज्यामप्रतिद्वन्द्वमन्तरेन गितन्त्रात:।
ध्यानिनो नोपमा लोके सदेवगमनुजेऽपि हि ।।८।।२४०।। अथ : जो जिनेन्द्रिय है, धैर्ययुक्त है और अत्यन्त शान्त है, जिस की प्रात्मा
अस्थिरतारहित है, जो सुखासन पर बिराजमान् है, जिस ने नासिका के अग्रभाग पर लोचन स्थापित किये हैं और जो योगसहित हैं,
___ ध्येय में जिसने चित्त की स्थिर तारुप धारा से वेग-पूर्वक दाह्य इन्द्रियों का अनुसरण करने वाली मानसिक-वृत्ति रोक लिया है, जो प्रसन्नचित्त हैं, प्रमादरहित हैं और ज्ञानानन्द रुसी अमृतास्वादन करने-बाला है;
जो अन्त:करण में ही विपक्षरहित चक्रवर्तित्व का विस्तार करता है, ऐसे ध्याता की, देवसहित मनुष्यलोक में भी सचमुच,
उपमा नहीं है ! निवेचन : ये तीनों श्लोक, ध्याता-ध्यानी महापुरुष की लक्षण-संहिता की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
१. जितेन्द्रिय : ध्यान करने वाला पुरुष जितेन्द्रिय हो । इन्द्रियों का विजेता हो ! किसी इन्द्रिय का वह गुलाम न हो। कोई इन्द्रिय उसे हेरान-परेशान न करें। इन्द्रियाँ सदा महात्मा की आज्ञानुवर्ती बन कर रहें। इन्द्रिय-परवशता को दीनता कभी उसे स्पर्श न करे । इन्द्रियों की चंचलता से उत्पन्न राग-द्वेष का उन में अभाव हो। ऐसा जितेन्द्रिय महापुरुष ध्यान से ध्येय में तल्लोन हो सकता है।
२. धोरः सात्त्विक महापुरुष ही ध्यान की तीक्ष्ण धार पर चल सकता है। सत्वशाली ही दीर्घावधि तक ध्यानावस्था में टिक सकता है। ठीक वैसे ही प्रांतर-बाह्य उपद्रवों का सामना भी सत्वशील ही कर सकता है। जानते हो न महर्षि बने रामचंद्रजी को सीतेन्द्र ने कैसे उपद्रव किये थे ? फिर भी रामचंद्रजो ध्यानावस्था से विचलित नहीं हुए ! कारण? उन के पास सत्व था और थी चित्त की दृढता ! इन्द्रिय-जन्य कोई मोहक विषय आकर्षित न कर सके, उसे सत्व कहा गया है ! कोई भय,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org