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ज्ञानसार
॥४॥
पूर्णो मग्नःस्थिरोऽमोहो ज्ञानी शान्तो जितेन्द्रियः । त्यागी क्रियापरस्तृप्तो निर्लेपो निःस्पृहो मुनिः ॥१॥ विद्याविवेकसंपन्नो मध्यस्थो भयवजितः । अनात्मशंसकस्तत्त्वदृष्टिः सर्वसमृद्धिमान् ॥२॥ ध्याता कर्मविपाकानामुद्विग्नो भववारिधः । लोकसंज्ञाविनिमुक्तः शास्त्रग् निष्प्ररिग्रहः ॥३॥ शुद्धानुभववान् योगी नियागप्रतिपत्तिमान् ।
भावार्चाध्यानतपसां भूमिः सर्वनयाश्रितः अर्थ : ज्ञानादि से परिपूर्ण, ज्ञान में निमग्न योगी की स्थिरता से युक्त, मोह
विरहित, तत्त्ववेत्ता, उपशमवंत, जितेन्द्रिय, त्यागी, क्रिया-तत्पर, आत्मसंतुष्ट, निलेप और स्पृहारहित मुनि होता है । वह (मुनि) विद्यावान्, विवेकसंपन्न, पक्षपात से परे, निर्भय, स्वप्रशंसा नहीं करनेवाला, परमार्थ की दृष्टिवाला और आत्म-संपत्तिवाला होता है। वह कर्मफल का विचार करनेवाला, संसार-सागर से भयभीत, लोकसंज्ञा से रहित, शास्त्रदृष्टिवाला और अपरिग्रही होता है। शुद्ध अनुभव वाला, योगी, मोक्ष को प्राप्त करनेवाला, भाव-पूजा का आश्रय, ध्यान का आश्रय, तप का आश्रय और सर्व नयों का आश्रय
करनेवाला होता है । विवेचन : आठ-आठ श्लोकों का एक अष्टक ! - कुल बत्तीस अष्टक और बत्तीस ही विषय !
- विषयों का क्रमशः संयोजन किया गया है। संयोजन में संकलन है ! संयोजन में साधना का मार्गदर्शन है। इन चार श्लोकों में बत्तीस विषयों की नामावली दी गयी है ! ग्रंथकार ने गुर्जर-टीका [टबा] में सोद्देश्य क्रम समझाने का प्रयत्न किया है ।
* पहला अष्टक है पूर्णता का ।।
लक्ष्य बिना की प्रवृत्ति की कोई कीमत नहीं होती । अतः पहले अष्टक में ही पूर्णता का लक्ष्य प्रदर्शित किया है ! आत्म-गुणों की पूर्णता का लक्ष्य समझाया है। जो जीव इस लक्ष्य से 'मुझे आत्म-गुणों की
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