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विषयक्रम-निर्देश
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* पन्द्रहवाँ अष्टक है विवेक का !
दूध और पानी की तरह परस्पर ओत-प्रोत कर्म और जीव को मुनिरुपी राजहंस अलग करता है ! ऐसी भेदज्ञानी आत्मा ही मध्यस्थ बन सकती है ! अतः
* सोलहवाँ अष्टक है मध्यस्थता का ।
कुतर्क और राग-द्वेष का त्याग हुआ और अंतरात्म-भाव में रमणता शुरू हुई कि आत्मा मध्यस्थ और निर्भय होती है, अतः
* रात्रहवां अष्टक है निर्भयता का !
भय की भ्रान्ति नहीं ! जो आत्म-स्वभाव के अद्वैत में लीन हो गया, वह निर्भयता के वास्तविक आनन्द का मजा लूटता है ! उसे स्व-प्रशंसा करना पसंद नहीं, तभी तो ।
* अठारहवाँ अष्टक है अनात्मशंसा का ।
जो व्यक्ति स्व- गुणों से परिपूर्ण है उसे स्व-प्रशंसा पसंद ही नहीं ! अपना गुणानुवाद सुनने की इच्छा तक नहीं होती, अत: ज्ञानानन्द की मस्ती में परपर्याय का उत्कर्ष क्या साधना ? वह अलौकिक तत्त्वदृष्टि का स्वामी बनता है, अतः
* उन्नीसवाँ अष्टक है तत्त्वदृष्टि का ।
तत्त्वदृष्टि प्रायः रुपी को नहीं, बल्कि अरुपी को परिलक्षित करती है । अरुपी को निहार, उस में ओत-प्रोत हो जाती है, समरस होती है ! ऐसी आत्मा सर्वसमृद्धि का स्वयं में ही अहसास करती है, अतः
के बीसवाँ अष्टक है सर्व समृद्धि का ।
इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव, शेषनाग, महादेव, कृष्ण आदि सभी विभूतिओं की समृद्धि....वैभव....ऐश्वर्य का प्रतिबिब वह स्वयं की आत्मा में ही निहारता है । ऐसा आत्मदर्शन निरंतर टिक सके, अतः मुनि प्रायः कर्मविपाक का चितन करता है, इसलिए
* इक्कीसवाँ अष्टक है कर्म-विपाक का ।
कर्मों के फल का विचार । शुभाशुभ कर्मों के उदय का विचार करनेवाली आत्मा अपनी ही आत्म-समृद्धि में संतुष्ट होती है, संसार महोदधि से नित्य भयभीत होती है, अतः
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