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अध्यात्मादियोग ]
का प्रतिदिन अनुवर्तन-अभ्यास करना, उसका नाम भावनायोग हैं। जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ता जाता है वैसे-वैसे उनमें समुत्कर्ष होता जाता है और मन की समाधि बढ़ती जाती है । ____ यह भावनायोग सिद्ध होने पर अशुभ अध्यवसायों (विचारों) से जीव निवृत्त होता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप वगैरह शुभ भावों के अभ्यास के लिये अनुकूल भावना की प्राप्ति होती है और चित्त का सम्यक् समुत्कर्ष होता है ।
भावनायोगी के आंतरिक क्रोधादिकषाय मंद पड़ जाते हैं। इन्द्रियों का उन्माद शान्त हो जाता है । मन-वचन-काया के योगों को वह संयमित रखता है । मोक्षदशा प्राप्त करने की अभिलाषावाला बनता है और विश्व के जीवों के प्रति वात्सल्य धारण करता है। ऐसी आत्मा निर्दभ हृदय से जो क्रिया करती है, उससे उसके अध्यात्म-गुणों की वृद्धि होती है । ३. ध्यानयोग :
'प्रशस्त किसी एक अर्थ पर चित्त की स्थिरता होना, उसका नाम 'ध्यान' है । वह ध्यान धर्मध्यान या शुक्लध्यान हो तो वह ध्यानयोग बनता है। भूमिगृह कि जहाँ वायु का प्रवेश नहीं हो सकता, वहाँ जलते हुए दीपक की ज्योति के समान ध्यान स्थिर हो अर्थात् स्थिर दीपक के जैसा हो। चित्त का उपयोग उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य वगैरह सूक्ष्म पदार्थों में होना चाहिए । इस प्रकार 'श्री योगबिंदु' ग्रंथ में प्रतिपादन किया हुआ है ।
इस ध्यानयोग से प्रत्येक कार्य में भावस्तमित्य आत्मस्वाधीन बनता है । पूर्व कर्मों के बंध की परम्परा का विच्छेद हो जाता है।
५ निवृत्तिरशुभाभ्यासाच्छुभाभ्यासानुकूलता ।
तथा सुचित्तवृद्धिश्च भावनायाः फलं मतम् ।। ३६१ ।। योगबिन्दुः । ६ शान्तो दान्तः सदा गुरूतो मोक्षार्थी विश्ववत्सलः । __निर्दम्भां यां क्रियां कुर्यात् साध्यात्मगुणवृद्धये ।। २२५ ।। अध्यात्मसारे ।.. ७ वशिता चैव सर्वत्र भावस्तमित्यमेव च ।। अनुबन्धव्यच्छेद उदर्कोऽस्योति तद्विदः ।। ३६३ ॥ योगबिन्दुः ।
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