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[ ज्ञानसार
करती हैं (मन, वचन, काया से) उसे श्री जिनेश्वरदेव ने 'अध्यात्म' कहा है ।
जीवात्मा पर से मोह का वर्चस्व टूट जाने पर जीवात्मा का आंतरिक एवं बाह्य स्वरुप कैसा बन जाता है, उसका विशद वर्णन, भगवंत हरिभद्राचार्य ने 'योगबिन्दु' ग्रन्थ में किया है ।
उस जीव का आचरण सर्वत्र औचित्य से उज्ज्वल होता है । स्व-पर के उचित कर्तव्यों को समझकर तदनुसार अपने कर्तव्य का पालन करने वाला वह होता है । उसका एक-एक शब्द औचित्य की सुवास से मघमघायमान होता है ।
उसके जीवन में पांच अणुव्रत या पांच महाव्रत रम गये हुए होते हैं । व्रतों का प्रतिज्ञाबद्ध पालन करता हुआ, यह महामना योगी लोक प्रिय बनता है।
श्री वीतराग सर्वज्ञ भगवंतों के द्वारा निर्देशित नवतत्त्वों की निरन्तर पर्यालोचना मैत्री-प्रमोद-करूणा-माध्यस्थ्यमूलक होती है, अर्थात् इसके चितन में जीवों के प्रति मैत्री की, प्रमोद की, कारूण्य की और माध्यस्थ्य की प्रधानता होती है। इस प्रकार औचित्य, व्रतपालन, और मैत्र्यादिप्रधान नवतत्त्वों का चितन यह वास्तविक 'अध्यात्म' है।
___ इस अध्यात्म से ज्ञानावरणीयादि क्लिष्ट पापों का नाश होता है । साधना में आंतरवीर्य उल्लसित होता है। चित्त की निर्मल समाधि प्राप्त होती है, सम्यग्ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है, जो कि जात्यरत्न के प्रकाश जैसा अप्रतिहत होता है । अध्यात्म का यह दिव्य अमृत अति दारूण मोह रुपी विष के विकारों का उन्मूलन कर डालता है । इस आध्यात्मिक पुरूष का मोह पर वर्चस्व जम जाता है। २. भावनायोग
___+उपर्युक्त औचित्यपालन, व्रतपालन और मैत्र्यादिप्रधान नव तत्त्वों २ औचित्याद् वृत्तयुक्तस्य वचनात्तत्वचिंतनम् ।
मैत्र्यादिसारमत्यन्तमध्यात्म तद्विदो बिदुः ।। ३५८ ।। योगबिन्दु। । ३ अतः पापक्षयः सत्त्वं शीलं ज्ञानं च शाश्वतम् ।
तथानुभवसंसिद्धममृतं पद एव तु ।। ३५९ ।। योगबिन्दुः । ४ अभ्यासोऽस्यैब विज्ञेयः प्रत्यहं वृद्धिसंगतः । मनः समाधिसंयुक्तः पौनःपुन्येन भावना ।। ३६० ।। योगबिन्दुः ।
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