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ध्यान ]
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( १ ) ऊसष्ण्णदोसे : निरंतर हिंसा, असत्य, चोरी आदि करना । ( २ ) बहुदो से : हिंसादि सर्व पापों में प्रवृत्ति करनी ।
(३) अण्णाणदोसे : अज्ञान से कुशास्त्रों के संस्कार से हिंसादि पापों में धर्मबुद्धि से प्रवृत्त करनी ।
( ४ ) आमरणंतदोसे : आमरणांत थोड़ा सा भी पश्चात्ताप किए बिना + कालसौकरादि की तरह हिंसादि में प्रवृत्ति करनी ।
इस आर्त- रौद्र ध्यान के फल का विचार 'श्री आवश्यक सूत्र' के प्रतिक्रमण - अध्ययन में किया गया है। आर्तध्यान का फल परलोक में तिर्यंचगति और रौद्रध्यान का फल नरकगति होता है ।
३. धर्मध्यान
' श्री ' हरिभद्री अष्टक' ग्रन्थ में धर्मध्यान की यथार्थ एवं सुन्दर स्तुति की गई है ।
६ सैकड़ों भवों में उपार्जित किये हुए अनंत कर्मों के गहन वन के लिये अग्नि समान है ।
* सर्वतप के भेदों में श्रेष्ठ है ।
* आंतर तपः क्रियारुप है ।
2 धर्मध्यान के चार लक्षण हैं: ( १ ) आज्ञारुचि ( २ ) निसर्गरुचि (३) उपदेशरूचि ( ४ ) सूत्ररूचि ।
( १ ) आज्ञारुचि : श्री जिनेश्वरदेव के वचन की अनुपमता, कल्याणकारिता, सर्व सत्तत्वों की प्रतिपादकता वगैरह को देखकर उस पर
श्रद्धा करना ।
(२) निसर्गरुचि : ज्ञान-दर्शन- चारित्रमय आत्मपरिणाम । (३) उपदेशरुचि : जिनवचन के उपदेश को श्रवण की भावना ।
४ कालसौकरिक नाम का वसाई रोज ५०० पाड़ों का वध करता था ।
१ भवशतसमुपचितकर्म वनगहनज्वलन कल्पम् ।
अखिलतपः प्रकारप्रवरम् । आन्तरतपः क्रियारुपम् ।
२ धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारी लक्खणा - आज्ञारूई - णिसग्गरूई उबएस रुई -सुत्तरुई ।
- श्री औपपातिक सूत्रे ।
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