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[ ज्ञानसार
योग बाकी रहता है । यह ध्यान आत्मा की एक विशिष्ट प्रकार की अवस्था है, और वह अप्रतिपाती तथा अविनाशी है अर्थात् यह अवस्था अवश्य चौथे प्रकार के व्यानरूप बन जाती है ।
४. व्युच्छिन्न क्रिया - अनिवृत्ति
यहाँ समग्र योग हमेशा के लिए विराम प्राप्त कर गए होते हैं । विच्छेद प्राप्त कर गये होते हैं । इस अवस्था में अब कभी भी परिवर्तन नहीं होता । यह अवस्थाविशेष ही ध्यान है । 'शैलेशी अवस्था' इस ध्यानरूप है ।
छद्मस्थ आत्मा का ध्यान
मन की स्थिरता छद्मस्थ का ध्यान है ।
अन्तर्मुहूर्तकालं यच्चित्तावस्थानमेकस्मिन् वस्तुनि तच्छास्थानां ध्यानम् । श्री हरिभद्रसूरि आवश्यक सूत्रे । 'अन्तर्मुहूर्त' काल के लिए एक वस्तु में जो चित्त की एकावस्था, वह छद्मस्थ जीव का ध्यान है ।
जिन का ध्यान
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'योग निरोध, यह जिन का ध्यान है । दूसरे का नहीं । 2 काया की स्थिरता, केवली का ध्यान है ।
६. धर्मसंन्यास - योगसंन्यास
'सामर्थ्य योग के ये दो भेद हैं । सामर्थ्ययोग क्षपकश्रेणी में होता है । यह योग प्रधान फल मोक्ष का निकटतम कारण है ।
? 'छद्यस्थस्य... ध्यानं मनसः सर्वमुच्यते'
।। १०१ ।।
१ योगनिरोधो जिनानामेव ध्यानं नान्येषाम् ।
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२ वपुषः स्थैर्यं ध्यानं केवलिनो भवेत् ।। १०१ ।।
- गुणस्थानक क्रमारोहे | Yerful
- श्री हरिभद्रसूरिः, आवश्यक
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सूत्रे
- गुणस्थानक क्रमारोहे
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