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अध्यात्मादियोग ]
[ ९ कर रहे हुए कुकर्मों का क्षय हो जाता है ! अपेक्षातन्तुविच्छेदः ! अपेक्षा तो कर्मबंध का मूल है, वह मूल उखड़ जाता है ।।
इस समतायोगी के गले में कोई भक्त आकर पुष्पमाला या चंदन का लेप कर जाय... कोई शत्रु आकर कुल्हाड़े का घाव कर जायन तो उस भक्त पर राग और न उस शत्रु पर द्वेष ! दोनों पर समान दृष्टि ! दोनों के शुद्ध आत्मद्रव्य पर ही दृष्टि !
8श्री उपाध्यायजी ने इस 'समता' के मुक्तकंठ से गीत गाये हैं ! ५. वृत्तिसंक्षय योग :
निस्तरंग महोदधि समान आत्मा की वृत्तियाँ दो प्रकार से दृष्टिगोचर होती हैं; (१)विकल्परुप (२)परिस्पंदरुप। ये दोनों प्रकार की वृत्तियाँ आत्मा की स्वाभाविक नहीं हैं परंतु अन्य संयोगजन्य हैं । तथाविध मनोद्रव्य के संयोग से - विकल्परुप वृत्तियाँ जाग्रत होती हैं । x शरीर से परिस्पन्दरूप वृत्तियाँ होती हैं।
जब केवलज्ञान की प्राप्ति होती है तब विकल्परुप वत्ति का संक्षय हो जाता है। ऐसा क्षय हो जाता है कि पुनः अनंतकाल के लिए आत्मा के साथ उसका संबंध ही न हो। 'अयोगी केवली' अवस्था में परिस्पंदरुप वृत्तियों का भी विनाश हो जाता है ।
इसका नाम है वृत्तिसंक्षययोग । इस योग का फल है-केवलज्ञान और मोक्षप्राप्ति !
अतोऽपि केवलज्ञानं शैलेशीसम्परिग्रहः । मोक्षप्राप्तिरनाबाधा सदानन्द विधायिनी ॥६६७ ।।
-योगबिन्दुः ४. चतुर्विध सदनुष्ठान सम्यग्ज्ञान-दर्शन और चारित्र के गुणों की वृद्धि जिस क्रिया द्वारा होती है उसे सदनुष्ठान कहा जाता है। सत्क्रिया कहें अथवा सदनुष्ठान कहें, दोनों समान हैं । ८. देखोः अध्यात्मसार-समताधिकारे । - मानसिक विचार Xशारीरिक क्रियाएँ
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