________________
१० ]
[ ज्ञानसार
इस सदनुष्ठान के चार प्रकार 'श्री षोडषक' ग्रन्थ में श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वरजी ने बताये हैं । उसी प्रकार 'योगविशिका' ग्रन्थ की टीका में पूज्य उपाध्यायजी ने भी चार अनुष्ठानों का विशद वर्णन किया है । १. प्रीति अनुष्ठान :
• आत्महितकर अनुष्ठान के प्रति, अनुष्ठान बतानेवाले सद्गुरु के प्रति और सर्वजन्तुवत्सल तारक जिनेश्वरभगवंत के प्रति परम प्रीति उत्पन्न होनी चाहिये । अनुष्ठान विशिष्ट प्रयत्नपूर्वक करने में आवे, अर्थात जिस समय करना हो उसी समय किया जाय । भले ही दूसरे सैकड़ों काम बिगडते हों ।
एक वस्तु के प्रति दृढ़ प्रीति जगने के बाद, फिर उसके लिए जीव क्या नहीं करता ? किसका त्याग नहीं करता ? उपर्युक्त हकीकत 'श्री योगविशिका' में दर्शायी गई है । 'यत्रानुष्ठाने १. प्रयत्नातिशयोऽस्ति, २. परमा च प्रीतिरूत्पद्यते, ३. शेषत्यागेन च यत्क्रियते तत्प्रीत्यनुष्ठानम् ।' २. भक्ति अनुष्ठान :
भक्ति - अनुष्ठान में भी ऊपर की ही तीन वस्तुएँ होती हैं किन्तु अन्तर आलम्बनीय को लेकर पड़ता है । भक्ति-अनुष्ठान में आलम्बनीय में विशिष्ट पूज्यभाव की बुद्धि जाग्रत होती है, उससे प्रवृत्ति विशुद्धतर बनती है ।
पूज्य उपाध्यायजी ने प्रीति और भक्ति के भेद को बताते हुए पत्नी और माता का दृष्टान्त दिया है । मनुष्य में पत्नी के प्रति प्रीति होती है और माता के प्रति भक्ति होती है । दोनों के प्रति कर्तव्य समान होते हुए भी माता के प्रति पूज्यभाव की बुद्धि होने से उसके प्रति का कर्तव्य उच्च माना जाता है ।
अर्थात् 2 अनुष्ठान के प्रति विशेष गौरव जाग्रत हो, उसके प्रति
• यत्रादरोऽस्ति परमः प्रीतिश्च हितोदया भवति कत्तुः । शेषत्यागेन करोति यच्च तत् प्रीत्यनुष्ठानम् ॥
१ अत्यन्तवल्लभा खलु पत्नी तद्वद्धिता च जननीति । तुल्यमपि कृत्यमनयोज्ञति स्यात् प्रीतिभक्तिगतम् ॥ २ गौरव विशेषयोगाद् बुद्धिमतो यद् विशुद्धतरयोगम् । क्रियेत तुल्यमपि ज्ञेयं
तद्भक्त्यनुष्ठानम् ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
- दशम- षोडष के
-- योग विंशिका
- दशम - षोड़षके
www.jainelibrary.org