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उपसंहार
लग्नालर्कमबोधकुपपतितं चास्ते परेषामपि, स्तोकानां तु विकारभाररहितं तज्ज्ञानसाराश्रितम् ॥
अर्थ : उफ् ! कइयों का मन विषयज्वर से पीडित हैं, तो कइयों का मन विष वेग जिसका परिणाम है वैसे कुतर्क से मूर्च्छित हो गया है, अन्य का मन मिथ्या वैराग्य से हडकाया जैसा है, जब कि कुछ लोगों का मन अज्ञान के अंधेरे कुए में गिरे जैसा हैं । फिर कुछ थोडे लोगों का मन विकार के भार से रहित है, वह ज्ञानसार से आश्रित है ।
विवेचन : संसार में विभिन्न वृत्ति के जीव बसते हैं । उनका मन भिन्न भिन्न प्रकार की वासनाओं से लिप्त है ! यहां ऐसे जीवों का स्वरूप-दर्शन कराने का ग्रन्थकार ने है, साथ ही वे यह भी बताते हैं कि इनमें से मन ज्ञानसार के रंग से तर-बतर है :
प्रयास किया कितनों का
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कइयों का मन शब्दादि विषयों की स्पृहा एवं भोगोपभोग से पीडित है ।
कई जीव कुतर्क और कुमति के सर्पों से इसे हुए हैं । कुतर्क - सर्पों के तीव्र - विष के कारण मूच्छित हो गये हैं !
कई लोग अपने आप को वैरागी के रूप में बताते हैं । लेकिन यह एक प्रकार का हडकवा ही है ! वास्तव में एकाध पागल
कुत्ते जैसी उन की अवस्था है ।
जब कि कित्येक मोह-अज्ञान के अंधेरे कूप में गिरे हुए हैं ! उन की दृष्टि कुए के बाहर भला, कहाँ से जा सकती है ?
हाँ, कुछ लोग, जो संख्या में अल्प हैं, ऐसे अवश्य हैं, जिन के मन पर विकार का बोझ नहीं है ! ऐसी सर्वोत्तम आत्मा ही ज्ञानसार का आश्रय ग्रहण करती है !
जातोद्रेक विवेकतोरणततौ धावल्यमातन्वति, हृद्गृहे समयोचितः प्रसरति स्फीतश्च गीतध्वनिः । पूर्णानन्दघनस्य किं सहजया तद्भाग्यभंग्याऽभवन्नैतद् ग्रन्थमिषात् करग्रहमहश्चित्रं चरित्रश्रियः ॥
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