________________
५०६
सिद्धि सिद्धपुरे पुरन्दरपुरस्पर्धावहे लब्धवांचिद्दीपोऽयमुदारसार महसा दीपोत्सवे पर्वणि ! एतद् भावनभावपावनमनश्चञ्चच्चमत्कारिणां, तेस्तैर्दोषशतैः सुनिश्चयमतैनित्योऽस्तु दीपोत्सवः !
अर्थ : श्रेष्ठ एवं सारभूत परम ज्योतिर्मय प्रस्तुत ज्ञान - दीप, इन्द्र की राजधानी की स्पर्धा करनेवाले सिद्धपुर नगर में दीपावली पर्व के सुअवसर पर समाप्त हुआ ! यह ग्रंथ भावनाओं के रहस्य से परिपूर्ण एवं पवित्र हुए मन में उत्पन्न विविध चमत्कारयुक्त जीवों को, वह वह उत्तम निश्चयमतरुपी शत-शत दीपकों से निरंतर उनके लिए दीपावली का महोत्सव हो !
विवेचन : यह 'ज्ञानसार' का दीपक दीपावली के पुनित पर्व में पूर्णरूपेण प्राप्त हुआ । गुर्जर धरा पर स्थित प्राचीन संस्कृति के अनन्य घाम 'सिद्धपुर' नगर में चातुर्मासार्थ रहे ग्रन्थकार के शुभ हाथों इसकी पूर्णता हुई ।
वास्तव में ज्ञानदीप का प्रकाश श्रेष्ठ है । सर्व प्रकाशों में प्रस्तुत प्रकाश सारभूत है । जो कोई सज्जन इस ग्रंथ का अध्ययन, मनन एवं परिशीलन करेगा उसे निःसंदेह रहस्यभूत ज्ञान की प्राप्ति होगी । रहस्य से मन पवित्र होता है और आश्चर्य से चमत्कृत ! ऐसे जीवों के लिए ग्रन्थकार कहते हैं :
ज्ञानसार
" हे मानव ! तुम नित्य प्रति निश्चयनय के असंख्य दीपक प्रज्वलित करो और सदैव दीपावली महोत्सव मनाओ ! ”
ग्रन्थकार महोदय की यही मनीषा है कि, इस के पठन-पाठन एवं चिंतन से सांसारिक जीव हमेंशा आत्मज्ञान के दीप प्रज्ज्वलित कर अपूर्व आनन्द का अनुभव करें । साथ साथ इस के अध्ययन - परिशीलन से मन पवित्र बनेगा और अनुपम प्रसन्नता का अनुभव होगा, इस का विश्वास दिलाते हैं ।
निश्चयनय के माध्यम से आत्मज्ञान पाने के लिए प्रयत्नशील बनने की प्रेरणा प्राप्त होती है ।
केषां चिद्विषय ज्वरातुरमहो चित्तं परेषां विषावेगोदर्क तर्कमूर्च्छितमथान्येषां कुवैराग्यतः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org