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ज्ञानसार
कोई दर्शन नहीं करता। अरे भई, ज्ञानविहीन यानी भावशून्य क्रिया से क्या मतलब ? .. जो क्रिया की जाए उस के अनुरूप भाव होना नितान्त आवश्यक है । भाव से क्रिया सजीव और प्राणवान बनती है, अमूल्य बनती है । जबकि ज्ञानशून्य क्रिया मिट्टी के घडे जैसी है। एक बार घडा फूट जाए, फिर उसका कोई उपयोग नहीं, और ना ही उस की कोई कीमत होती है। अतः हे महानुभाव, तुम अपनी धर्म-क्रियाओं को ज्ञानयुक्त बनाओ, भावयुक्त बनाओ। कर्मक्षय का लक्ष्य रख कर प्रत्येक धर्म-क्रिया करते रहो ।।
क्रियाशून्यं च यज्ज्ञानं ज्ञानशून्या च या क्रिया ।
अनयोरन्तरं ज्ञेयं भानुखद्योतयोरिव ॥७।। अर्थ : जो ज्ञान क्रियारहित है, और जो क्रिया ज्ञान रहित है, इन दोनों में
अन्तर सूर्य और खद्योत (जूगनु) की तरह है । विवेचन : क्रियाशून्य ज्ञान सूर्य की तरह है !
ज्ञानविहीन क्रिया जगन की तरह है। कहाँ तो सूर्य का प्रकाश और कहाँ जूगनु का प्रकाश ? असंख्य जुगनुओं का समूह भी सूर्य-प्रकाश की तुलना में नहिवत ही है । इस तरह ज्ञानशून्य क्रियाएँ कितनी भी की जाएँ तो भी सूर्यसदृश तेजस्वी ज्ञान की तुलना में कोई महत्व नहीं रखती । ___जब कि, भले ही क्रियाशून्य ज्ञान हो, [ ज्ञानयुक्त क्रिया उसके जीवन में नहीं है । ] फिर भी ज्ञान का जो अनोखा प्रकाश है, वह तो सदैव बरकरार ही रहेगा । अरे, सूर्य भले ही बादलों से घिरा हो, लेकिन संसार की क्रियाएँ उस के प्रकाश में चलती ही रहती हैं। जब कि जूगनु के प्रकाश में तुम कोई भी कार्य नहीं कर सकते ।
- साथ ही क्रियारहित ज्ञान का अर्थ क्रिया-निरपेक्ष ज्ञान न लगाना। अर्थात् क्रिया के प्रति अरुचि अथवा उस की अवहेलना नहीं, परंतु क्रियाओं की उपायदेयता का स्वीकार करनेवाला ज्ञान ! ज्ञानयुक्त क्रिया करते हुए क्रिया छूट जाए, लेकिन उस का भाव अंत तक बरकरार रहे - ऐसा ज्ञान !
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