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१. कृष्ण पक्ष - शुक्ल पक्ष
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अनन्तकाल से अनन्त जीव चतुर्गतिमय संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं । वे जीव दो प्रकार के हैं : भव्य तथा अभव्य । जिस जीव में मोक्षावस्था प्राप्त करने की योग्यता होती है उसे 'भव्य' कहा जाता है तथा जिस जीव में वह योग्यता नहीं होती उसे 'अभव्य' कहते हैं ।
[ ज्ञानसार
भव्य जीव का संसारपरिभ्रमणकाल जब एक 'पुद्गल परावर्त' बाकी रहता है, अर्थात् मोक्षदशा प्राप्त करने के लिए एक पुद्गल - परावर्त काल बाकी रहता है तब वह जीव 'चरमावर्त' में आया हुआ कहा जाता है ।
एक पुद्गल - परावर्त का आधे से अधिक काल व्यतीत होने पर, वह जीव 'शुक्लपाक्षिक' कहलाता है । किन्तु जो जीव कालमर्यादा में नहीं आया होता है वह 'कृष्णपाक्षिक' कहलाता है, अर्थात् वह जीव कृष्णपक्ष में अर्थात् मोह''''अज्ञानता के प्रगाढ़ अन्धकार में रहा हुआ होता है । श्री जीवाभिगम सूत्र के टीकाकार महर्षि ने भी उपरोक्त बात का समर्थन किया है :
'इह द्वये जीवाः तद्यथा - कृष्णपाक्षिकाः शुक्लपाक्षिकाश्च । तत्र येषां किञ्चद्नार्द्ध पुद्गल परावर्तः
संसारस्ते शुक्लपाक्षिकाः इतरे दीर्घसंसारभाजिनः कृष्णपाक्षिकाः । इसी बात को पूज्य उपाध्यायजी ने 'ज्ञानसार' के 'टब्बे' में अन्य शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा पुष्ट किया है ।
जेसि अवढ्ढपुग्गलपरियट्टो सेसओ य संसारो । ते सुक्कपक्खिया खलु अवरे पुण कण्हपक्खिया ॥ उपरोक्त शास्त्रकारों की मान्यताओं की अपेक्षा श्री " दशाश्रुतस्कंध-सूत्र” के चूर्णीकार की मान्यता भिन्न है । उन्होंने इस प्रकार प्रतिपादन किया है:
'जो अकिरियावादी सो भवितो अभविउ व नियमा किण्हपक्खिओ, किरियावादी नियमा भव्वओ नियमा सुक्कपक्खिओ । अतोपुग्गल - परियट्टस्स नियमा सिज्ज्ञिहिति । सम्मद्दिट्ठी वा मिच्छादिट्ठी वा होज्ज ।' 'जो जीव अक्रियावादी है, भले ही वह भव्य अथवा अभव्य हो, वह अवश्य कृष्णपाक्षिक है । जबकि क्रियावादी भव्य आत्मा निश्चय ही
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