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ज्ञानसार
'ज्ञानसार से भारी बनो। ज्ञानसार का वजन बढाते रहो ! फलतः तुम्हारी उर्ध्वगति ही होगी ! अधःपतन कभी नहीं होगा !' ग्रन्थकार ने बड़ी ही लाक्षणिक शैली में यह उपदेश दिया है ! वे दृढता के साथ आश्वस्त करते हैं कि ज्ञानसारप्राप्त श्रमणश्रेष्ठ की उन्नति ही होती है । अधःपतन कभी संभव नहीं । अतः ज्ञानसार प्राप्त कर तुम निर्भय बन जाओ, दुर्गति का भय छोड दो, पतन का डर हमेशा के लिए अपने मन से निकाल दो ! ज्ञानसार के अचिन्त्य प्रभाव से तुम प्रगति के पथ पर निरंतर बढते ही चले जाओगे ।
हालाँकि यह सृष्टि का शाश्वत् नियम है कि भारी वस्तु सदैव नीचे ही जाती है, ऊँची कभी नहीं जाती ! लेकिन यहाँ उस का अद्भत विरोधाभास प्रदर्शित किया गया है : 'भारी होने के उपरांत भी आत्मा ऊपर उठती है, ऊँची जाती है !' अतः यह विधान करना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ज्ञानसार की गरिष्ठता से भारी बना मुनि सद्गतिमोक्षपद का अधिकारी बनता है ।
क्लेशक्षयो हि मण्डकचूर्णतुल्यः क्रियाकृतः। .. दग्धतच्चूर्णसदृशो ज्ञानसारकृतः पुनः ॥५॥ अर्थ : क्रिया द्वारा किया गया क्लेश का नाश मेंढक के शरीर के चूर्ण की
तरह है। लेकिन 'ज्ञानसार' द्वारा किया गया क्लेश-नाश मेंढक के जले
हुए चूर्ण की तरह है ।। विवेचन : जिस तरह मेंढक के शरीर का चूर्ण हो जाने के उपरांत भी वृष्टि होते ही उस में से नये मेंढकों का जन्म होता है, उत्पत्ति होती हैं, ठीक उसी तरह धार्मिक-क्रियाओं की वजह से जिस क्लेश का-अशुभ कर्मों का क्षय होता है, वे कर्म पुनः निमित्त मिलते ही पैदा हो जाते हैं ! ____ यदि मेंढक के शरीर के चूर्ण को जला दिया जाए तो फिर कितनी ही घनघोर बारिश उस पर क्यों न पड़े, दुबारा मेंढक पैदा होने का कभी सवाल ही नहीं उठता ! ठीक उसी तरह ज्ञानाग्नि से भस्मीभूत हुए कर्म कभी पैदा नहीं होते !
तात्पर्य यही है कि ज्ञान के माध्यम से सदा कर्म-क्षय करते रहो! शुद्ध क्षयोपशम-भाव से कर्म-क्षय करो । दुबारा कर्मबंधन का भय नहीं
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