________________
४६४
ज्ञानसार
जब स्वजन, धन और इन्द्रियों के विषयों से मुक्त बना मुनि निर्भय और कलहरहित बनता है और अहंकार तथा ममत्व से नाता तोड देता है, तब उसमें शास्त्रवचन का अनुसरण करने की अदम्य शक्ति प्रस्फुटित होती है, अतः
* नौवाँ अष्टक है क्रिया का !
प्रीतिपूर्वक क्रिया, जिनाज्ञानुसार एवं निःसंगता-पूर्वक क्रिया करनेवाला महात्मा परम तृप्ति का अनुभव करता है इसलिए
* दसवाँ अष्टक है तृप्ति का !
स्व-गुणों में तृप्ति ! शान्तरस की तृप्ति ! ध्यानामृत की डकार ! 'भिक्षरेकः सुखी लोके ज्ञानतप्तो निरंजनः' भिक्षु...श्रमण....मुनि ही ज्ञानतृप्त बन, परम सुख का अनुभव करता है ! ऐसी ही आत्मा सदैव निर्लेप रह सकती है, अतः
* ग्यारहवाँ अष्टक है निर्लेपता का !
सारा संसार भले ही पाप-पंक का शिकार बन जाए, उसमें लिप्त हो जाए, लेकिन ज्ञानसिद्ध महात्मा उस से सदा अलिप्त- निर्लेप रहता है ! ऐसी ही आत्मा निःस्पृह बन सकती है, अतः
* बारहवाँ अष्टक है निःस्पृहता का ।
निःस्पृह महात्मा के लिए समस्त संसार तृणसमान होता है ! ना कोई भय, ना ही कोई इच्छा । फिर उसे क्या बोलने का होता है ? संकल्प-विकल्प भी कैसे हो सकता है ! ऐसी आत्मा ही मौन धारण कर सकती है, अतः
* तेरहवाँ अष्टक है मौन का ।
नहीं बोलनेरुप मौन तो एकेन्द्रिय जीव भी पालता है ! लेकिन यह तो विचारों का मौन ! अशुभ-अपवित्र विचार सम्बंधित मौन पालन करना है ! जो आत्मा ऐसा मौन धारण कर सकती है, वही विद्यासंपन्न बन सकती है, इसलिए
* चौदहवाँ अष्टक है विद्या का ।
अविद्या की त्यागी और विद्या की अर्थी आत्मा, आत्मा को ही सदैव अविनाशी रूप में निहारती है ! ऐसी आत्मा विवेकसंपन्न बनती है, अतः
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org