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ज्ञानसार
१. बाईसवाँ अष्टक है भवोद्वेग का ।
संसार के वास्तविक स्वरुप से अनभिज्ञ आत्मा चारित्र-क्रिया में एकाग्रचित्त होती है। फलतः लोकसंज्ञा का उसे स्पर्श तक नहीं होता, अतः
के तेईसवाँ अष्टक है लोकसंज्ञा-परित्याग का ।।
लोकसंज्ञा की महानदी में मुनि बह न जाए, बल्कि वह तो प्रवाह की विपरीत दिशा में भी गतिशील महापराक्रमी होता है ! लोकोत्तर मार्ग पर चलता हुआ मुनि शास्त्रदृष्टि से युक्त होता है, अतः
के चौबीसवाँ अष्टक है शास्त्र का !
उसकी दृष्टि ही शास्त्र है ! 'आगमचक्खु साह' श्रमण के नेत्र ही शास्त्र हैं ! ऐसा मुनि भी कहीं परिग्रही हो सकता है ? वह तो सदासर्वदा अपरिग्रही होता है, अतः
* पच्चीसवाँ अष्टक है परिग्रहत्याग का ।
बाह्य अंतरंग परिग्रह के त्यागी महात्मा के चरण में देवी-देवता तक नतमस्तक हो उठते हैं । ऐसे मुनिवर ही शुद्ध अनुभव कर सकते हैं, अतः
* छब्बीसवाँ अष्टक है अनुभव का ।
अतींद्रिय परम ब्रह्म का अनुभव करनेवाला महात्मा न जाने कैसा महान् योगी बन जाता है ! अतः
* सत्ताइसवाँ अष्टक है योग का ।
मोक्ष के साथ गठबंधन करानेवाले योगों का आराधक योगी, और स्थान-वर्णादि योग एवं प्रीति-भक्ति आदि अनुष्ठानों में रत योगी, सदैव ज्ञानयज्ञ करने के लिए सुयोग्य होता है, अतः
x. अठ्ठाइसवाँ अष्टक है नियाग का !
ज्ञानयज्ञ में आसक्ति ! समस्त आधि-व्याधि और उपाधि-रहित शूद्ध ज्ञान ही ब्रह्म-यज्ञ है । ब्रह्म में ही सर्वस्व समर्पण करनेवाला मुनि भाव-पूजा की सतह को स्पर्श कर सकता है, अतः
उन्तीसवाँ अष्टक है भावपूजा का ।
आतमदेव के नौ अंगों को ब्रह्मचर्य की नौ बाडों द्वारा पूजन-अर्चन करनेवाला मुनि अभेद-उपासना रुप भावपूजा में लीन हो जाता है । ऐसी आत्मा ही ध्यानस्थ बनती है, अत:
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