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तप
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बनने का आदर्श रखें । उस के लिए साध्य की कल्पना स्पष्ट करें । वह इतनी स्पष्ट होनी चाहिये कि जिस में से माधुर्य का स्फरण होता रहे ! इस के लिये तपश्चर्या के एकमेव उपाय का अवलम्बन करें ! बस, निरन्तर आनन्द-वृद्धि होती रहेगी और उस आनन्द में नित्यप्रति क्रिडा करते रहेंगे।
इत्यं च दुःखरूपत्वात तपोव्यर्थमितीच्छताम् ।
बौद्धानां निहता बुद्धिबौद्धानन्दापरिक्षयात् ॥५॥२४५।। अर्थ :- इस मंतव्य के साथ कि 'इस तरह दु.खरुप होने के कारण तप निष्फल
है, ऐसा कहने वाले बौद्धों की बुद्धि कुन्ठित हो गई है । क्यों कि बुद्धिजनित अन्तरंग आनन्द-धारा कभी खंडित नहीं होती! तात्पर्य यह कि तपश्चर्या में भी आत्मिक आनन्द की धारा सदैव अखंड
रहती है) विवेचन : 'कर्म-क्षय हेतु, दुष्ट वासनाओं के निरोधार्थ तपश्चर्या एक आवश्यक क्रिया है । जो करनी ही चाहिए।' इस शाश्वत् , सनातन सिद्धान्त पर भारतीय धर्मों में से केवल बौद्ध धर्म ने पाक्रमरण किया है ! अलबत्त, चार्वाक-दर्शन भी इसी पथ का पथिक है ! परंतु वह आत्मा और परमात्मा के सिद्धान्त में ही विश्वास नहीं करता । अतः वह तपश्चर्या के सिद्धान्त को स्वीकार न करे-यह समझ में आने जैसी बात है । परंतु आत्मा एवं निर्वाण को मान्यता प्रदान करनेवाला बौद्धदर्शन भी तपश्चर्या की अवहेलना करें, अमान्य करे, तब सामान्य जनता में संदेह उत्पन्न होता है और तपश्चर्या के प्रति अश्रद्धा का प्रादुर्भाव होता है ।
फलतः सामान्य जनता के हितचिंतक और मार्गदर्शक महात्माओं को दुःख होना स्वाभाविक है ! तपश्चर्या को लेकर बौद्ध-दर्शन का अपलाप कैसा है, यह जानने जैसी बात है ! वह कहता है :
'दुःखात्मकं तपः केचिन्मन्यते तन्न युक्तिमत् ।
कर्मोदयस्वरूपत्वात् बलिवर्दादि-दुःखवत् ॥, 'कित्येक (जैनादि) बैल आदि पशु के दुःख की तरह अशाता वेदनीय के उदय-स्वरूप होने से तपश्चर्या को दुःखप्रद मानते हैं, जो
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