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अर्थ : विविध नय पारस्परिक वाद- विवाद से विडंबित हैं ।
समभाव के सुख
का अनुभव करनेवाले महामुनि ( ज्ञानी) सर्व नयों के आश्रित हैं । विवेचन : कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यजी ने परमात्मा की स्तुति करते हुए कहा है
ज्ञानसार
'परस्पर और पक्ष-विपक्ष के भाव से अन्य प्रवाद द्वेष से युक्त हैं । लेकिन सभी नयों को समभाव से चाहने वाला आपका सिद्धान्त पक्षपाती नहीं है ।' वेदान्त में कहा है- 'आत्मा नित्य ही है ।' जब कि बौद्धदर्शन कहता है : 'आत्मा अनित्य है ।'
यह बात हुई पक्ष-विपक्ष की ! लेकिन दोनों आपस में टकराते हैं, वाग्युद्ध खेलते हैं और निज की समय-शक्ति का सर्वनाश करते हैं । उसमें न तो शान्ति है, ना ही क्षमता ! न उसमें मित्रता है और ना ही प्रमोद !
जबकि महामुनि वेदान्त और बौद्ध की मान्यताओं का समन्वय करते हुए कहते हैं : 'आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी ! द्रव्य दृष्टि के अनुसार नित्य है, जबकि पर्याय दृष्टि से अनित्य है । अतः द्रव्य दृष्टि से वेदान्त दर्शन की मान्यता को बौद्ध दर्शन मान्य कर ले और पर्याय दृष्टि से बौद्ध दर्शन की मान्यता को वेदान्त दर्शन स्वीकार कर ले, तो पक्ष - प्रतिपक्ष का वाद खत्म हो जाए, संघर्ष टल जाए और आपस में मित्रता हो जाय ।
इसी तरह ज्ञानवंत व्यक्ति, सभी नयों का समुचित आदर कर और उनके प्रति समभाव प्रस्थापित कर सुखानुभव करता है । साथ ही कौन सा नय किस अपेक्षा से तत्त्व का निरुपण करता है, उस अपेक्षा को जानकर यदि सत्य का निर्णय किया जाय, तो समभाव सलामत रह सकता है । अतः आवश्यक है.... सर्व नयों के अभिप्रायों का यथार्थ ज्ञान होना । तभी तो कहा है : 'ज्ञानी सर्वनयाश्रितः ।'
नाप्रमाणं प्रमाणं वा, सर्वमप्यविशेषितम् । विशेषितं प्रमाणं स्यादिति सर्वनयज्ञता ||३||२५१ ॥
अर्थ : यदि सर्व वचन विशेषरहित हों तो वे सर्वथा अप्रमाण नहीं हैं और प्रमाण भी नहीं हैं । विशेषसहित हों तो प्रमाण हैं । इस तरह सभी नयों का ज्ञान होता है ।
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