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ज्ञानसार
हैं । वह किसी पक्षविशेष की ओर झुकता नहीं, किसी के मत का दुराग्रही नहीं बनता । बल्कि उसकी दृष्टि समन्वय की हो जाती है ।
व्यवहार पक्ष में वह अपनी मध्यस्थता का परोपकार में उपयोग करता है । ठीक वैसे ही नयवाद को लेकर जहां वाद-विवादात्मक वागयुद्ध पूरे जोश से खेला जाता हो, वहां मध्यस्थदृष्टि महात्मा अपनी विवेकदृष्टि से संबन्धित पक्षों को समझाने का प्रयत्न करता है ।
विभिन्न नयों के आग्रही बने जीव, मिथ्याभिमान से पीडित होते हैं, अथवा आत्मिक-क्लेश से निरन्तर दग्ध होते हैं और उनके लिये यह स्वाभाविक भी होता है । इन्द्रभूति गौतम का जब भगवान महावीर के पास आगमन हुआ था, तब यही परिस्थति थी । वे मिथ्याभिमान के ज्वर से उफन रहे थे । मन में क्लेश कितना था ? क्योंकि वे एक ही नय के दृढ़ आग्रही थे । भगवंत ने उन्हें सर्व नयों की समन्वयदृष्टि प्रदान की । उन्हें सभी नयों का आश्रित होना सिखाया ।
किसी एक मत....एक ही वाद....एक ही मन्तव्य के प्रति मोहित न बन, सर्वनयों का आश्रित बनना ही जीवन का एकमेव शान्तिमार्ग है ।
श्रेयः सर्वनयज्ञानां विपूल धर्मवादतः ।
शुष्कवादात् विवादाच्च परेषां तु विपर्यायः ।।५।।२५३।। अर्थ : सर्व नया के ज्ञाताओं का धर्मवाद से बहुत कल्याण होता है, जबकि
एकान्तदृष्टि वालों का तो शुष्कवाद एवं विवाद से विपरीत (अकल्याण)
ही होता है । विवेचन : किसी प्रकार का वाद नहीं चाहिये, ना ही विवाद चाहिए । संवाद ही चाहिये । वाद-विवाद में अकल्याण है, संवाद में कल्याण है । ऐसे संवाद का समावेश सिर्फ धर्मवाद में है ।
तत्त्वज्ञान का अर्थी मनुष्य हमेशा धर्मवाद की खोज में रहता है। तत्त्वज्ञान-विषयक जिज्ञासा व्यक्त करता है। और तत्त्ववेत्ता का कर्तव्य है कि वह उसकी जिज्ञासा का निवारण करे, उसे संतुष्ट करे । यही तो धर्मवाद है । सिर्फ अपना ही मत- अभिप्राय दूसरे पर आरोपित
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