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ज्ञानसार
सम्यगज्ञान, सम्यग दर्शन और सम्यक चारित्र मूल गुण हैं । मूल गुण है पाँच प्रकार के महाव्रत । प्राणातिपात-विरमण-महाव्रत, मृषावाद विरमण महाव्रत, अदत्तादान-विरमण महाव्रत, मैथुन-विरमण महाव्रत और परिग्रह विरमण महाव्रत ।
और उत्तरगुण हैं : पांच समिति एवं तीन गुप्ति । दस प्रकार का श्रमण-धर्म और बारह प्रकार का तप ! संक्षेप में यह कहना उपयुक्त होगा कि 'चरण सित्तरी' और 'करण सित्तरी' मुनिराज का साम्राज्य है ।इसी की सिद्धि के लिये वह तपश्चर्या करता है । बाह्य तप और आभ्यंतर तप करता है ।
वह छठ्ठ-अठुम-अट्ठाई और मासक्षमण जैसा अनशन तप करता है। जब आहार-ग्रहण करे तब क्षुधा (भूख) से कम ग्रहण करे। जहाँ तक संभव हो कम से कम द्रव्यों का उपयोग करे। सरस व्यंजनों का परित्याग करें । काया को कष्ट दे अर्थात् उग्रविहार करे ! ग्रीष्मकाल में मध्याह्न के समय सूर्य की ओर निनिमेष दृष्टि लगा कर आतापना करे ! शरदऋतु में वस्त्रहीन हो कड़ाके की सर्दी में ध्यानस्थ रहे ! एक ही स्थानपर निश्चल बन घंटों तक बैठ कर ध्यानादि क्रिया करे ! किंचित भी हलन-चलन न हो, मानों साक्षात् पाषाणमूर्ति !
छोटी या बड़ी कोई भल हो जाए, संयम को किसी प्रकार का अतिचार लग जाए कि वह तुरंत प्रायश्चित करे ! परमेष्ठि भगवंतो का... ओंकार का ध्यान धरे । कोई गुरुजन हो, बालमुनि हो अथवा ग्लानमुनि हो, उन की सेवा-सुश्रूषा और भक्ति में सदा तत्पर बना रहे । ऐसा कोई सेवा का अवसर हाथ से न जाने दें ! लाख काम हों, विविध प्रकार की व्यस्तता से घिरा हो, फिर भी उसे एक ओर रख, सेवावैयावच्च के कार्य में अविलम्ब जड़ जाए । ग्लानमुनि की सेवा को वह परमात्मा की सेवा समझे ! विनय और विवेक तो उस के प्राण हो ! आचार्य-उपाध्यादि का मान-सन्मान करें, उनके प्रति विनीत-भाव अपने हृदय में संजोये रखे । अतिथि से अदब और विनय से पेश आए। उस का समस्त कार्यकलाप विनयभाव से सुशोभित हो । उस में मृदुता का ऐसा पुट हो कि जिस से मिथ्याभिमान स्पर्श तक न कर सके ।
रात्रि के समय....निद्रा का त्याग कर निरंतर कायोत्सर्ग में निमग्न रहे । ध्यानस्थ मुद्रा में षड्द्रव्यों का चिंतन करे और दिन-रात के आठ
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