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ज्ञ निसार
समझा ! तपश्चर्या को कष्टप्रद नहीं बल्कि सुखप्रद मानने की चंपा श्राविका की महानता को परखा ! फलतः अकबर जैसा बादशाह तपश्चर्या की खिदमत में झुक पडा !
यत्र ब्रह्म जिनाएं च कषायाणां तथा हतिः ।
सानुबन्धा जिनाज्ञा च तत्तपः शुद्धमिष्यते ॥६॥२४६॥ अर्थ :- जहां ब्रह्मचर्य हो, जिनपूजा हो, वषायों का क्षय होता हो और
अनुबंधसहित जिन-आज्ञा प्रवर्तित हो. ऐसा तप शुद्ध माना जाता
विवेचन : - बिना सोचे-समझे तप करने से नहीं चलता, ना ही कोई लाभ होता है। यानी उसके परिणाम को जानना चाहिये ! यह परिरणाम इसी जीवन में आना चाहिए । सिर्फ परलोक के रमणीय सुखों को कल्पनालोक में गूंथकर तप करने से कोई लाभ नहीं ! तनिक ध्यान से सोचो। जैसे-जैसे तुम तपश्चर्या करते जाओ, वैसे-वैसे उसके निम्नांकित चार परिणाम प्राने चाहिये :
(१) ब्रह्मचर्य में वृद्धि होती है ? । (२) जिन-पूजा में प्रगति होती है ? (३) कषायों में कटौती होती है ?
(४) सानुबन्ध जिनाज्ञा का पालन होता है ?
तपश्चर्या का प्रारम्भ करते समय इन चार आदर्श दृष्टि समक्ष रखना परमावश्यक है । जिस तरह तपश्चर्या करते चले उसी तरह इन चार बातों में प्रगति हो रही है या नहीं-इसका निरीक्षण करते रहें। इसी जीवन में इन चारों ही बातों में हमारी विशिष्ट प्रगति होनी चाहिए । यही तो तपश्चर्या का तेज है और अद्भुत प्रभाव !
ज्ञानमूलक तपश्चर्या ब्रह्मचर्य में दृढता प्रदान करती है ! उस से प्रब्रह्म.... मैथुन की वासनाएँ मंद हो जाती हैं और दिमाग में भूलकर भी कामभोग के विचार नहीं आते । मन-वचन-काया से ब्रह्मचर्य का पालन होता है ! तपस्वी के लिए ब्रह्मचर्य-महाव्रत के पालन में सुगमता आ जाती है । मैथुन-त्याग तपस्वी के लिए आसान हो जाता है ! तपस्वी का एक ही लक्ष्य होता है : "मुझे ब्रह्मचर्य-पालन में
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